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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति नही पडा । | किशोरी० | श्राश्रो मेरे पास बैठो, अब तो तुम्हें उम्मीद हो गई कि मेरी जान बच जायगी और मैं यहाँ से जा सकेंगी । लाली० । बेशक अब मुझे पूरी उम्मीद हो गई। किशोरी० । सन्दूकही मिली है। लाली० | हाँ, यह सोचकर कि दिन को किसी तरह मौका न मिलेगा उसी समय में चूढ़ी दादी को दिखी श्राई उन्होंने पहिचान कर कहो कि बेशक यही सन्दूकडी है । उसे रग की वहाँ कई सन्दुकड़िया थी मगर वह खास निशान जो चूढ़ी दादी ने बताया था देखकर मैं उसी एक को | ले आई ।। किशोरी० १ मै भी उस सन्दूकडी को देखा चाहती हूँ ।। लाली० । बेशक मैं तुम्हें अपने यहां ले चल कर वह सन्दूकडी दिखा सक्ती हूँ मगर उसके देखने से तुम्हें किसी तरह का फायदा नहीं होगा बल्कि तुम्हारे वहाँ चलने से कुन्दन को खुटका हो जायगा और वह सोचेगी कि किशोरी लाली के यहा क्यों गई । उस सन्दूकडी में कोई ऐसी बात नहीं है जो देखने लायक हो, उसे मामूली एक छोटा सा डिब्बा समझना चाहिए जिसमें कई ताली लगाने की जगह नहीं है। श्रीर मजबूत भी इतनी है कि किसी तरह टूट नहीं सकती है। किशोरी० । फिर वह क्योंकर खुल सृया और उसके अन्दर से वह चाभी क्योंकर निकलेगी जिसको हम लोगों को जरूरत है ? लीला० । रेती से रेत कर उसमें सूरज किया जायगा । किशोरी० | देर लगेगी । लाली० । द्दा दो दिन में यह काम होगा क्योंकि सिवाय रात के दिन को मौका नहीं मिल सकता। किशोर० । मुझे तो एफ एक घड़ी सौ सौ वर्ष के समान बीतती है । लील० । पैर न इतने दिन ते चहा दो दिन र सही ।