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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्त सन्तति कोतवाल० ! मैं तो यहा बहुत देर से हैं, सेनापति साहब ने एक विचित्र कहानी में ऐसा उलझ रखा था कि बस क्या कहूँ, हाँ श्राप अपना हाल कहिए भी वेचैन हो रहा है ।। | दीवान० । मेरा कोई नया हाल नहीं है, केवल माधवी के विषय में कुछ सोचने विचारने आया हूँ । सेनापति० | माधवी के विपय में किस नये सोच नै अापको श्रा घेरा १ छ तकरार की नौबत तो नहीं श्राई ! दीवान० 1 तकरार की नौबत आई तो नहीं मगर आना चाहती है। सेनापति० । सो क्यों है । दीवान० 1 उसके र ढग आज कल बेढब नजर आते हैं, तभी तो देखिये इस समय में यह हैं, नहीं तो पहर रात के बाद क्या कोई मेरी सूरत देख सकता था ? कौत | इघर तो कई दिन आप अपने मकान पर रहे हैं । दीवान० । हो, इन दिनों वह अपने महल में कम आती हैं, उसी गुप्त पहाड़ी में रहती हैं, कभी कभी आधी रात के बाद आती है और मुझे उसकी राह देखनी पड़ती है । कोत० वहा उसका जी कैसे लगता है ? दीवान० ! यही तो तन्जुिब है, मैं सोचता हूँ कि कोई मर्द वह जरूर है क्योंकि चद्द भी अकेली रहने वाली नहीं है। सैना | अगर ऐसा है तो पता लगाना चाहिए ।। | दीवान० 1 पता लगाने के उद्योग में में कई दिन से लगा हूँ मगर कुछ है न सर ! जिस इवाजे को खोल कर वह आती जाती है उसकी ता भई इमलिये बनाई कि धोरौ में वह तक जा पचू मगर काम न चा कि जाती ममय अन्दर से वह न मालूम ताने में क्या कर जाती है कि ताली ही नहीं लगती है। कोतवान्न० तो दा तोट के वृह पहुँचना