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निराला




जब ते बिछुरे स्याम साँवरे,
न कोउ आवत-जात!"

तरुण युवक खड़ा हो गया। अच्छा लगा। एक पेड़ की जड़ पर बैठकर एकचित सुनता रहा। कितने भाव प्राणों में जगकर उथल-पुथल मचाने लगे—"यह परदेशी की बात कौन कहता है? क्या कहता है? तरु-लता-द्रुम-खंजन-करील आदि वही सब अब भी हैं, पर श्याम बिछुड़ गए हैं, इसीलिये तो वह सब सूना हो रहा है? वहाँ कोई नहीं आता-जाता!—यह परदेशी की कैसी बात है?" कितने विचार बह गए। वह सुनता रहा—अज्ञात भी कितना कह गए। फिर सब भूल गया। एक होश रहा-यह परदेशी कौन है—क्या कहा-यह साँवरे श्याम कैसे बिछुड़े?—फिर भी परदेशी की बात कहने में इनका अस्तित्व है!

चुपचाप उठकर वह चला गया। गाँव से बाहर एकान्त में, एक रास्ते के किनारे, चढ़ी मालती के बड़े पीपल के नीचे बँधे पक्के चबूतरे पर, महावीरजी की सुन्दर मूर्त्ति स्थापित थी, वहीं जाकर बैठ गया। विशद विचार का नशा था ही। लड़ी आप फैल चली। तुलसीदास की याद आई। महावीरजी, तुलसीदासजी और श्रीरामायण से हिन्दी-भाषी पठित हिन्दू-मात्र का जीवन-संबंध है। मन सोचने लगा। तुलसीदास की सिद्धि के कारण महावीरजी हैं। सामने सिंदूर की सजी सुन्दर मूर्त्ति पर सूर्य की किरणें पड़ रही थीं। देखकर भक्ति-भाव से प्रणाम किया। अर्थ कुछ नहीं समझा। पर उस पत्थर की मूर्त्ति पर प्राण मुग्ध हो गए। यह एक संस्कार था—एक मूर्ख संस्कार, जिसे ब्रह्म-भाव के लोग आज कुसंस्कार कहते हैं, वृहत्तर भारत के निर्माण के लिये प्रयत्न पर हैं।

'खसी माल मूरति मुसकानी' वह नहीं समझा; पर खसी मालवाली—बिना माला की मूर्त्ति मुस्कराई। उसने केवल देखा—सामने