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चतुरी चमार



२७

से एक युवक उनकी चाल देखकर हँस रहा था। हाथ के इशारे से वकील साहब ने उसे पास बलाया। युवक चला गया। घबराये हुए गोमती की तरफ़ उँगली उठाकर वकील साहब ने कहा—"वहाँ जाओ, देखो।" कहकर बँगले की तरफ़ बढ़े। युवक गोमती की तरफ़ गया।

घायल की दशा देखकर युवक को दया आ गई। उसके सीने में दोनों तरफ़ से छुरा भोंका गया था। गोमती के प्रवाह से देह का तमाम खून बह गया था। पर वह साधारण मनुष्य से ज़्यादा सचेत था, आवाज़ ज़्यादा साफ़। वीर कर्त्तव्य की ओर देखता है, काल्पनिक भविष्य-विपत्ति की ओर नहीं। उस घायल की रक्षा के लिये उसके विशाल हृदय में सहानुभूति पैदा हुई, व्यायाम से कसी बाहें अपनी ही शक्ति से वासस्थल तक ले जाने को फड़कने लगीं। आँखों ने अपने भाई को देखा।

एक हाथ जाँघों से, एक गर्दन से निकालकर अनायास युवक उसे अपने डेरे को ले चला। जल से निकलकर ही घावों की पीड़ा से घायल चीत्कार करने लगा। नज़दीक ही युवक का डेरा था। अपने बिस्तरे पर ले जाकर लेटा दिया। कपड़े की रगड़ से पीड़ा बढ़ रही थी; घायल ने उतार देने के लिये कहा, सँभालकर युवक ने एक-एक कपड़े उतार दिये।

फिर काग़ज़ लेकर उसके बयान लिखने लगा। घायल को बेहोशी आ रही थी, कहते-कहते भूल जाता था। कुछ असम्बद्ध उक्तियाँ युवक ने लिख लीं। घायल मूर्च्छित हो गया।

युवक व्यग्रता से निश्चय न कर सका कि क्या करें, पहले थाने में रिपोर्ट लिखवायें या अस्पताल ले जायें। घायल की प्रति-मुहूर्त बढ़ती हुई बुरी हालत एक बार उसे थाने की ओर ढकेलती, फिर अस्पताल की