चतुरी चमार
२१
जोत ने हाथ से किताब छीन ली, थप से मेज़ पर रखकर बोली—"मिस लैला, मजनू के मज़मून में दीवानी न बनो। प्रेम का परिणाम बुरा होता है प्यारी! चलो, कलकत्ते से पारसी कम्पनी आई हुई है, वहाँ हम लोग धार्मिक शिक्षा ग्रहण करें।"
लीला जोत से दो साल आगे, एम्॰ ए॰ में है। जोत चंचल है। लीला क्षमा करती है। शीर्ण मुख की बड़ी-बड़ी सकरुण आँखों से देखती हुई बोली—"भई, तुम लोग जाओ। मुझे इतना समय कहाँ?"
"समय नहीं, पैसे कहो।" श्यामा बोली।
"अच्छा, पैसे सही। कालेज के अलावा पाँच घंटे पढ़ाती हूँ। डाक्टर साहब बड़े आदमी हैं। लड़कियों की पढ़ाई के लिये साठ देते हैं। मेरी हालत भी जानते हैं। तअल्लुक़दार रघुनाथसिंह की नई पत्नी को पढ़ाती हूँ, चालिस वहाँ मिलते हैं। इसी में घर का कुल ख़र्च है। इतने के बाद अपने पढ़ने के लिये भी समय निकालना पड़ता है। दिक़्क़त तुम लोग समझ सकती हो। ऐसी हालत में समय और पैसों की मुझे कितनी तंगदस्ती हो सकती है।"
"अच्छा महाशयाजी, चलिए।" जोत बोली—"आपके लिये फ़्री पास का प्रबन्ध हो जायगा।"
"तुम तो आज म्यान से निकली तलवार-सी चमक रही हो जोत! क्या ख़ुशी है?" लीला ने धीर स्नेह-कंठ से पूछा।
"महाशयाजी, जो किसी के हलक़ से नीचे उतरकर सर चढ़ी हो, वह शराब हैं यह अब।" मुस्कराकर सुभा ने कहा।
"नहीं", कमला बोली—"अभी तो—देख लो न इनकी तरफ़—होठों प' हँसी, अबरू पर ख़म, इसलिये इक़रार भी है, इनकार भी है।"
"बात क्या है?" अनजान की तरह देखते हुए लीला ने पूछा।
"पूरा रहस्यवाद उर्फ़ छायावाद।" निर्मला ने कहा—"वाद-विवाद में देर हो रही है। प्रकाशवाद यह है कि इनके पास मिस्टर श्यामलाल