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निराला



से कुछ कहा। तब मैं कुछ दूर था, सुना नहीं। गाँववाले समझे नहीं, दारोग़ाजी झंडे की तरफ़ जा रहे थे। ज़मींदार शायद उखड़वा देने के इरादे लिये जा रहे थे। महावीरजी के अहाते में झंडा देखकर दारोग़ाजी कुछ सोचने लगे, बोले—"यह तो मंदिर का झंडा है।" अच्छी तरह देखा, उसमें कोई रंग न देख पड़ा। ज़मींदार साहब को ग़ौरसे देखते हुए लौटकर डेरे की तरफ़ चले। ज़मींदार साहब ने बहुत समझाया कि यह बारिश से धुलकर सफ़ेद हो गया है, लेकिन है यह कांग्रेस का झंडा। पर दारोग़ाजी बुद्धिमान थे।

महावीरजी के अहाते में सफ़ेद झंडे को उखड़वाकर वीरता प्रदर्शित करने की आज्ञा न दी। गाँव में कांग्रेस है, इसका पता न सब-डिविज़न में लगा, न ज़िले में; थानेदार साहब करें क्या?

उन दिनों मुझे उन्निद्र-रोग था। इसलिये सर के बाल साफ़ थे। मैंने सोचा—"वेश का अभाव है, तो भाषा को प्रभावशाली करना चाहिए; नहीं तो थानेदार साहब पर अच्छी छाप न पड़ेगी। वहाँ तो महावीर स्वामी की कृपा रही, यहाँ अपनी ही सरस्वती का सहारा है।" मैं ठेठ देहाती हो रहा था; थानेदार साहब ने मुझसे पूछा—"आप कांग्रेस में हैं?" मैंने सोचा—"इस समय राष्ट्रभाषा से राजभाषा का बढ़कर महत्त्व होगा।" कहा—"मैं तो विश्व-सभा का सदस्य हूँ।" इस सभा का नाम भी थानेदार साहब ने न सुना था। पूछा—"यह कौन-सी सभा है?" उनके जिज्ञासा-भाव पर गम्भीर होकर नोबुल- पुरस्कार पाए हुए कुछ लोगों के नाम गिनाकर मैंने कहा—"ये सब उसी सभा के सदस्य हैं।" थानेदार साहब क्या समझे; वह जानें। मुझसे पूछा, "इस गाँव में कांग्रेस है?" मैंने सोचा—युधिष्ठिर की तरह सत्य की रक्षा करूँ, तो असत्य-भाषण का पाप न लगेगा।" कहा—"इस गाँव के लोग तो कांग्रेस का मतलब भी नहीं जानते।" इतना कहकर मैंने सोचा—"अब ज़्यादा बातचीत ठीक न होगी।" उठकर खड़ा हो