मैं दलीपशाह को वह हाल कहने से भी रोक दूंगा और तुम्हारे ही हाथ की लिखी हुई तुम्हारी अपनी जीवनी पढ़ने के लिए किसी को दूंगा जो इस सन्दूकड़ी में बन्द है ।
इतना कहकर इन्द्रदेव ने वही सन्दूकड़ी निकाली जिसकी सूरत देखने ही से भूत- नाथ का कलेजा काँपता था ।
उस सन्दूकड़ी को देखते ही एक दफे तो भूतनाथ घबराया-सा होकर काँपा, मगर तुरन्त ही उसने अपने को सँभाल लिया और इन्द्रदेव की तरफ देख के बोला, "हाँ हाँ आप कृपा कर इस सन्दूकड़ी को मेरी तरफ बढ़ाइये, क्योंकि यह मेरी चीज है और मैं इसे लेने का हक रखता हूँ । यद्यपि कई ऐसे कारण हो गये हैं जिनसे आप कहेंगे कि यह सन्दूकड़ी तुम्हें नहीं दी जायगी, मगर फिर भी मैं इसी समय इस पर अपना कब्जा कर सकता हूँ, क्योंकि देवीसिंहजी मुझसे प्रतिज्ञा कर चुके हैं कि सन्दूकड़ी बन्द की बन्द तुम्हें दिला दूंगा, अब देवीसिंहजी की प्रतिज्ञा झूठी नहीं हो सकती !" इतना कहकर भूत- नाथ ने देवीसिंह की तरफ देखा।
देवीसिंह--(महाराज से) निःसन्देह मैं ऐसी प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।
महाराज--अगर ऐसा है तो तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी नहीं हो सकती। मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।
इतना सुनते ही देवीसिंह उठ खड़े हुए, उन्होंने इन्द्रदेव के सामने से वह सन्दूकड़ी उठा ली और यह कहते हुए भूतनाथ के हाथ में दे दी, "लो मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करता हूँ, तुम महाराज को सलाम करो जिन्होंने मेरी और तुम्हारी इज्जत रख ली।"
भूतनाथ–-(महाराज को सलाम करके) महाराज की कृपा से अब मैं जी उठा।
तेजसिंह--भूतनाथ, तुम यह निश्चय जानो कि यह सन्दूकड़ी अभी तक खोली नहीं गयी है, अगर सहज में खुलने लायक होती तो शायद खुल गयी होती।
भूतनाथ--(सन्दूकड़ी अच्छी तरह देख-भाल कर) बेशक यह अभी तक खुली नहीं है ! मेरे सिवाय कोई दूसरा आदमी इसे बिना तोड़े खोल भी नहीं सकता। यह सन्दूकड़ी मेरी बुराइयों से भरी हुई है, या यों कहिये कि यह मेरे भेदों का खजाना है, यद्यपि इसमें के कई भेद खुल चुके हैं, खुल रहे हैं और खुलते जायेंगे, तथापि इस समय इसे ज्यों का त्यों बन्द पाकर मैं बराबर महाराज को दुआ देता हुआ यही कहूँगा कि मैं जी उठा, जी उठा, जी उठा ! अब मैं खुशी से अपनी जीवनी कहने और सुनने के लिए तैयार हूँ और साथ ही इसके यह भी कह देता हूँ कि अपनी जीवनी के सम्बन्ध में जो कुछ कहूँगा, सच कहूंगा !
इतना कहकर भूतनाथ ने वह सन्दूकड़ी अपने बटुए में रख ली और पुनः हाथ जोड़कर महाराज से बोला, महाराज, मैं वादा कर चुका हूँ कि अपना हाल सच-सच वयान करूँगा, परन्तु मेरा हाल बहुत बड़ा और शोक, दुःख तथा भयंकर घटनाओं से भरा हुआ है। मेरे प्यारे मित्र इन्द्रदेवजी, जिन्होंने मेरे अपराधों को क्षमा कर दिया है, कहते हैं कि तेरी जीवनी से लोगों का उपकार होगा और वास्तव में बात भी ठीक ही है अतएव कई कठिनाइयों पर ध्यान देकर मैं नियमपूर्वक महाराज से एक महीने की मौह-
लत मांगता हूँ। इस बीच मैं अपना पूरा-पूरा हाल लिखकर पुस्तक के रूप में महाराज के