पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/७९

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ही चाहते थे कि भूतनाथ के हाथ का खंजर उनके कलेजे के पार हो गया और वे बेदम होकर जमीन पर गिर पड़े।


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मैं नहीं कह सकता कि भूतनाथ ने ऐसा क्यों किया। भूतनाथ का कौल तो यही है कि मैंने उनको पहचाना नहीं, और धोखा हुआ। खैर जो हो, दयाराम के गिरते ही मेरे मुंह से 'हाय' की आवाज निकली और मैंने भूतनाथ से कहा, "ऐ कम्बख्त ! तूने बेचारे दयाराम को क्यों मार डाला जिन्हें बड़ी मुश्किल से हम लोगों ने खोज निकाला था!".

मेरी बात सुनते ही भूतनाथ सन्नाटे में आ गया। इसके बाद उसके दोनों साथी तो न मालूम क्या सोचकर एकदम भाग खड़े हुए, मगर भूतनाथ बड़ी बेचैनी से दयाराम के पास बैठकर उनका मुंह देखने लगा। उस समय भूतनाथ के देखते ही देखते उन्होंने आखिरी हिचकी ली और दम तोड़ दिया । भूतनाथ उनकी लाश के साथ चिपटकर रोने लगा और बड़ी देर तक रोता रहा। तब तक हम तीनों आदमी पुनः मुकाबला करने लायक हो गये और इस बात से हम लोगों का साहस और भी बढ़ गया कि भूतनाथ के दोनों साथी उसे अकेला छोड़कर भाग गये थे। मैंने मुश्किल से भूतनाथ को अलग किया और कहा, "अब रोने और नखरा करने से फायदा ही क्या होगा, उसके साथ ऐसी ही मुहब्बत थी तो उन पर वार न करना था, अब उन्हें मारकर औरतों की तरह नखरा करने बैठे हो !"

इतना सुनकर भूतनाथ ने अपनी आँखें पोंछी और मेरी तरफ देख के कहा, "क्या मैंने जानबूझकर इन्हें मार डाला है ?"

मैं-—बेशक ! क्या यहाँ आने के साथ ही तुमने उन्हें चारपाई पर पड़े नहीं देखा था?

भूतनाथ-–देखा था, मगर मैं नहीं जानता था कि ये दयाराम हैं। इतने मोटे-ताजे आदमी को यकायक ऐसा दुबला-पतला देखकर मैं कैसे पहचान सकता था?

मैं--क्या खूब, ऐसे ही तो तुम अन्धे थे ? खैर, इसका इन्साफ तो रणधीरसिंह के सामने ही होगा, इस समय तुम हमसे फैसला कर लो, क्योंकि अभी तक तुम्हारे दिल में लड़ाई का हौसला जरूर बना होगा।

भूतनाथ -- (अपने को संभालकर और मुंह पोंछकर) नहीं-नहीं, मुझं अब लड़ने का हौसला नहीं है, जिसके वास्ते मैं लड़ता था जब वही नहीं रहा तो अब क्या ? मुझे ठीक पता लग चुका था कि दयाराम तुम्हारे फेर में पड़े हुए हैं, और अपनी आँखों से देख भी लिया, मगर अफसोस है कि मैंने पहचाना नहीं और ये इस तरह धोखे में मारे गये । लेकिन इसका कसुर भी तुम्हारे ही सिर लग सकता है।