पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/६०

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सोने वाले सभी लोगों को जगा दिया अर्थात् सब कोई चौंक कर उठ बैठे और ताज्जुब के साथ इधर-उधर देखने लगे। केवल इतने ही से बेचैनी दूर न हुई और सब कोई बारहदरी से बाहर निकल कर सहन में चले आये, उसी समय इन्द्रदेव ने सामने आकर महाराज को सलाम किया।

महाराज--यह तो मालूम हो गया कि यह सब तुम्हारी कारीगरी का नतीजा है, मगर बताओ तो सही कि यह गाने-बजाने की आवाज कहाँ से आ रही है ?

इन्द्रदेव--आइये, मैं बताता हूँ। महाराज को जगाने ही के लिए यह तरकीब की गई थी, क्योंकि अब यहाँ से रवाना होने का समय हो गया है, और विलम्ब न करना चाहिए

इतना कहकर इन्द्रदेव सभी को उस सिंहासन के पास ले गया जिसमें से गाने की आवाज आ रही थी । और उसका असल भेद समझाकर बोला, "इसमें मौके पर हर एक रागिनी पैदा हो सकती है ।"

इस अनूठे गाने-बजाने से महाराज बहुत प्रसन्न हुए और इसके बाद सभी को लिए हुए इन्द्रदेव के मकान की तरफ रवाना हुए ।

उस बारहदरी की बगल में ही एक कोठरी थी जिसमें सभी को साथ लिए हुए इन्द्रदेव चला गया ! इस समय इन्द्रदेव के पास तिलिस्मी खंजर था जिससे उसने हलकी रोशनी पैदा की और उसी के सहारे सभी को लिए हुए आगे की तरफ बढ़ा।

उस कोठरी में जाने के बाद पहले सभी को एक छोटे से तहखाने में उतरना पड़ा,वहाँ सभी ने लाल रंग की एक समाधि देखी जिसके बारे में दरियाफ्त करने पर इन्द्रदेव ने कहा कि यह समाधि नहीं है, सुरंग का दरवाजा है। इन्द्रदेव उस समाधि के पास बैठ गया और कोई ऐसी तरकीब की कि जिससे वह बीचोंबीच से खुल गई और नीचे उतरने के लिए चार-पांच सीढ़ियाँ दिखाई दीं। इन्द्रदेव के कहे मुताबिक सब कोई नीचे उतर गये और इसके बाद सीधी सुरंग में चलने लगे । सुरंग की हालत और ऊँची-नीची जमीन से साफ-साफ मालूम होता था कि वह पहाड़ काटकर बनाई हुई है और सब लोग ऊँचे की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। हमारे मुसाफिरों को दो-ढाई घड़ी के लगभग चलना पड़ा और तब इन्द्रदेव ने ठहरने के लिए कहा, क्योंकि यहाँ पर सुरंग खत्म हो चुकी थी और सामने एक बन्द दरवाजा दिखाई दे रहा था । इन्द्रदेव ने ताली लगाकर ताला खोला और सभी को साथ लिए हुए उसके अन्दर गया। सभी ने अपने को एक सुन्दर कमरे में पाया और जब इस कमरे के बाहर हुए तब मालूम हुआ कि सवेरा हो चुका है।

यह इन्द्रदेव का वही मकान है जिसमें बुड्ढे दारोगा के साथ मदद पाने की उम्मीद में मायारानी गई थी। इस सुन्दर और सुहावने स्थान का हाल हम पहले लिख चुके हैं, इसलिए अब पुनः बयान करने की कोई जरूरत नहीं मालूम होती।

इन्द्रदेव सभी को लिए हुए पुनः अपने छोटे से बगीचे में गया, वहाँ चारों तरफ की सुन्दर छटा दिखाई दे रही थी और खुशबूदार ठण्डी-ठण्डी हवा दिल और दिमाग के साथ दोस्ती का हक अदा कर रही थी।

महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह तथा दोनों कुमारों को यह स्थान बहुब ही