पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/५५

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सभी के चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी। इन्हीं पन्द्रह आदमियों में से दो आदमी मशीन का काम दे रहे थे। जिस तरह उनकी पोशाक खूबसूरत और बेशकीमत थी, उसी मशाल भी सुनहरी तथा जड़ाऊ काम की दिखाई दे रही थी और उसके सिरे की त बिजली की तरह रोशनी हो रही थी, इसके अतिरिक्त उनके हाथ में तेल की कुप्पी न थी और इस बात का कुछ पता नहीं लगता था कि इस मशाल की रोशनी का सबब क्या है।

राजा गोपालसिंह और इन्द्रजीतसिंह ने देखा कि वे लोग शीघ्रता के साथ उस दालान के सजाने और फर्श वगैरह के ठीक करने का इन्तजाम कर रहे हैं । बारहदरी के दाहिनी तरफ एक खुला हुआ दरवाजा है, जिसके अन्दर वे लोग बार-बार जाते हैं और जिस चीज की जरूरत समझते हैं, ले आते हैं। यद्यपि उन सभी की पोशाक एक ही ढंग की है और इसलिए बड़ाई-छुटाई का पता लगाना कठिन है, तथापि उन सभी में से एक आदमी ऐसा है, जो स्वयं कोई काम नहीं करता और एक किनारे कुर्सी पर बैठा हुआ अपने साथियों से काम ले रहा है। उसके हाथ मे एक विचित्र ढंग की छड़ी दिखाई दे रही है जिसके मुठे पर निहायत खूबसूरत और कुछ बड़ा हिरन बना हुआ है। देखते-ही-देखते थोड़ी देर में बारहदरी सज कर तैयार हो गई और कन्दीलों की रोशनी से जगमगाने लगी। उस समय वह नकाबपोश जो कुर्सी पर बैठा था और जिसे हम उस मण्डली का सरदार भी कह सकते हैं, अपने साथियों से कुछ कह-सुन कर बारहदरी के नीचे उतर आया और धीरे-धीरे उधर रवाना हुआ जिधर महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह टिके हुए थे ।

यह कैफियत देख कर राजा गोपालसिंह और इन्द्रजीतसिंह जो छिपे सब तमाशा देख रहे थे वहाँ से लौटे और शीघ्र ही महाराज के पास पहुंच कर जो कुछ देखा था,संक्षेप में सब वयान किया । उसी समय एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। सभी का ध्यान उसी तरफ चला गया और इन्द्रजीतसिंह तथा राजा गोपालसिंह ने समझा कि यहवही नकाबपोशों का सरदार होगा जिसे अभी हम उस बारहदरी में देख आये हैं और जो हमारे देखते-देखते वहाँ से रवाना हो गया था। मगर जब पास आया तो सभी का भ्रम जाता रहा और एकाएक इन्द्रदेव पर निगाह पड़ते ही सब कोई चौंक पड़े । राजा गोपाल-सिंह और इन्द्रजीत सिंह को इस बात का भी शक हुआ कि वह नकाबपोशों का सरदार शायद इन्द्रदेव ही हो, मगर यह देख कर उन्हें ताज्जुब मालूम हुआ कि इन्द्र देव उस (नकाबपोशों की-सी) पोशाक में न था, जैसा कि उस बारहदरी में देखा था, बल्कि वह अपनी मामूली दरबारी पोशाक में था।

इन्द्रदेव ने वहाँ पहुँचकर महाराज सुरेन्द्र सिंह, वीरेन्द्र सिंह, जीतसिंह, तेजसिंह,राजा गोपालसिंह तथा दोनों कुमारों को अदब के साथ झुक कर सलाम किया और इसके बाद बाकी ऐयारों से भी "जय माया की" कहा ।

सुरेन्द्र सिंह--इन्द्रदेव, जब से हमने इन्द्रजीतसिंह की जुबानी यह सुना है कि इस तिलिस्म के दारोगा तुम हो, तब से हम बहुत ही खुश हैं । मगर ताज्जुब होता था कि तुमने इस बात की हमें कुछ भी खबर नहीं की और न हमारे साथ ग्रहां आये हो। अब यकायक इस समय यहाँ पर तुम्हें देख कर हमारी खुशी और भी ज्यादा हो गई । आओ, हमारे पास बैठ जाओ और यह कहो कि हम लोगों के साथ तुम यहाँ क्यों नहीं आये ?