चन्द्रकान्ता उपन्यास में वादा कर चुके हैं। अतः इस जगह चुनारगढ़ के चबूतरे वाले तिलिस्म की कैफियत लिखकर इस पक्ष को पूरा करते हैं, तब उसके बाद दोनों कुमारों की शादी और कैदियों के मामले की तरफ ध्यान देकर इस उपन्यास को पूरा करेंगे।
महाराज की आज्ञानुसार इन्द्रजीतसिंह दरवाजा खोलने के लिए तैयार हो गये । इस दरवाजे के ऊपर वाले महराब में किसी धातु के तीन मोर बने हुए थे जो हरदम हिला ही करते थे। कुमार ने उन तीनों मोरों की गर्दन घुमाकर एक में मिला दी, उसी समय दरवाजा भी खुल गया और कुमार ने सभी को अन्दर जाने के लिए कहा। जब सब उसके अन्दर चले गये, तब कुमार ने भी उन मोरों को छोड़ दिया और दरवाजे के अन्दर जाकर महाराज से कहा, "यह दरवाजा इसी ढंग से खुलता है, मगर इसके बन्द करने की कोई तरकीब नहीं है, थोड़ी देर में आप से आप बन्द हो जायगा। देखिए,तरफ भी दरवाजे के ऊपर वाले महराब में उसी तरह के मोर बने हुए हैं अतएव इधर से भी दरवाजा खोलने के समय वही तरकीब करनी होगी।"
दरवाजे के अन्दर जाने के बाद तिलिस्मी खंजर से रोशनी करने की जरूरत न रही क्योंकि यहाँ की छत में कई सूराख ऐसे बने हुए थे जिनमें से रोशनी बखूबी आ रही थी और आगे की तरफ निगाह दौड़ाने से यह भी मालूम होता था कि थोड़ी दूर जाने के बाद हम लोग मैदान में पहुंच जायेंगे जहाँ से खुला आसमान बखूबी दिखाई देगा, अतः तिलिस्मी खंजर की रोशनी बन्द कर दी गई और दोनों कुमारों के पीछे-पीछे सब कोई आगे की तरफ बड़े। लगभग डेढ़ सौ कदम तक जाने के बाद एक खुला हुआ दरवाजा मिला जिसमें चौखट या किवाड़ कुछ भी न था। इस दरवाजे के बाहर होने पर सभी ने अपने को संगमर्मर के छोटे से एक दालान में पाया और आगे की तरफ छोटा-सा बाग देखा जिसकी रविशें निहायत खूबसूरत स्याह और सुफेद पत्थरों से बनी हुई थीं मगर पेड़ों की किस्म में से केवल कुछ जंगली पौधों और लताओं की हरियाली मात्र ही बाग का नाम चरितार्थ करने के लिए दिखाई दे रही थी। इस बाग के चारों तरफ चार दालान चार ढंग के बने हुए थे और बीच में छोटे-छोटे कई चबूतरे और नहर की तौर पर सुन्दर और पतली नालियां बनी हुई थीं जिनमें पहाड़ से गिरते हुए झरने का साफ जल बहकर वहाँ के पेड़ों को तरी पहुंचा रहा था और देखने में भी बहुत भला मालूम होता था। मैदान में से निकलकर और आँख उठाकर देखने पर बाग के चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे हरे-भरे पहाड़ दिखाई दे रहे थे और वे इस बात की गवाही दे रहे थे कि यह बाग पहाड़ी की तराई अथवा घाटी में इस ढंग से बना हुआ है कि बाहर से किसी आदमी की इसके अन्दर आने की हिम्मत नहीं हो सकती और न कोई इसके अन्दर से निकलकर बाहर ही जा सकता है।
कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने महाराज सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर कहा, "उस चबूतरे वाले तिलिस्म के दो दर्जे हैं, एक तो यही बाग है और दूसरा उस चबूतरे के पास पहुंचने पर मिलेगा। इस बाग में आप जितने खूबसूरत चबूतरे देख रहे हैं सभी के अन्दर बेअन्दाज दौलत भरी पड़ी है । जिस समय हम दोनों यहाँ आये थे इन चबूतरों का छूना बल्कि इनके पास पहुंचना भी कठिन हो रहा था। (एक चबूतरे के पास ले जाकर)