चन्द्रकान्ता सन्तति
इक्कीसवाँ भाग
1
भूतनाथ अपना हाल कहते-कहते कुछ देर के लिए रुक गया और इसके बाद एक लम्बी साँस लेकर पुनः यों कहने लगा।
भूतनाथ––मैं अपने को कैदियों की तरह और अपने सामने अपनी ही स्त्री को सरदारी के ढंग पर बैठे हुए देखकर एक दफे घबड़ा गया और सोचने लगा कि यह क्या मामला है? मेरी स्त्री मुझे सामने ऐसी अवस्था में देखे और सिवाय मुस्कुराने के कुछ न बोले! अगर वह चाहती तो मुझे अपने पास गद्दी पर बैठा लेती, क्योंकि इस कमरे में जितने दिखाई दे रहे हैं उन सभी की वह सरदार मालूम पड़ती है-इत्यादि बातों को सोचते-सोचते मुझे क्रोध चढ़ आया और मैंने लाल आँखों से उसकी तरफ देखकर कहा, "क्या तू मेरी स्त्री वही रामदेई है जिसके लिए मैंने तरह-तरह के कष्ट उठाये और जो इस समय मुझे कैदियों की अवस्था में अपने सामने देख रही है?"
इसके जवाब में मेरी स्त्री ने कहा, "हाँ मैं वही रामदेई हूँ जिसके लड़के को तुम किसी जमाने में अपना होनहार लड़का समझकर चाहते और प्यार करते थे मगर आज उसे दुश्मनी की निगाह से देख रहे हो, मैं वही रामदेई हूँ जो तुम्हारे असली भेदों को न जानकर और तुम्हें नेक ईमानदार तथा सच्चा ऐयार समझकर तुम्हारे फंदे में फंस गई थी, मगर आज तुम्हारे असली भेदों का पता लग जाने के कारण डरती हुई तुमसे अलग हुआ चाहती हूँ, मैं वही रामदेई हूँ जिसे तुमने नकाबपोशों के मकान में देखा था, और मैं वही रामदेई हूँ जिसने उस दिन तुम्हें जंगल में धोखा देकर बैरंग वापस होने पर मजबूर किया था, मगर मैं वह रामदेई नहीं हूँ जिसे तुम 'लामाघाटी' में छोड़ आए हो।"
मुझे उस औरत की बातों ने ताज्जुब में डाल दिया और मैं हैरानी के साथ उसका मुंह देखने लगा। अनूठी बात तो यह थी कि वह अपनी बातों में शुरू से तो रामदेई अथवा मेरी स्त्री बनती चली आई मगर आखिर में बोल बैठी कि "मगर मैं वह रामदेई नहीं हूँ जिसे तुम लामाघाटी में छोड़ आए हो।" आखिर बहुत सोच-विचार कर मैंने पुनः उससे कहा, "अगर तू वह रामदेई नहीं है जिसे मैं लामाघाटी में छोड़ आया था, तो तू मेरी स्त्री भी नहीं है।"