डाल के कोई पेंच घुमाया जिससे चबूतरे के दाहिनी तरफ वाली दीवार किवाड़ के पल्ले की तरह धीरे-धीरे खुलं कर जमीन के साथ सट गई और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई देने लगीं। इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर हाथ में लिया और उसका कब्जा दबा कर रोशनी करते हुए चबूतरे के अन्दर घुसे तथा सभी को अपने पीछे आने के लिए कहा। सभी के पीछे आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर की रोशनी करते हुए चबूतरे के अन्दर घुसे । लगभग पन्द्रह-बीस चक्करदार सीढ़ियों के नीचे उतरने के बाद ये लोग एक बहुत बड़े कमरे में पहुंचे जिसमें सोने-चांदी के सैकड़ों बड़े-बड़े हण्डे, अशफियों और जवाहिरात से भरे हुए पड़े थे जिन्हें सभी ने बड़े गौर और ताज्जुब के साथ देखा और महाराज ने कहा, "इस खजाने का अन्दाज करना भी मुश्किल है।"
इन्द्रजीतसिंह-जो कुछ खजाना इस तिलिस्म के अन्दर मैंने देखा और पाया है उसका यह पासंगा भी नहीं है। उसे बहुत जल्द ऐयार लोग आपके पास पहुँचावेंगे । उन्हीं के साथ-साथ कई चीजें दिल्लगी की भी हैं जिसमें एक चीज वह भी है जिसकी बदौलत हम लोग एक दफा हँसते-हँसते दीवार अन्दर कूद पड़े थे और मायारानी के हाथ में गिरफ्तार हो गए थे।
जीतसिंह-(ताज्जुब से) हाँ ! अगर वह चीज शीघ्र बाहर निकाल ली जाय तो (सुरेन्द्रसिंह से) कुमारों की शादी में सर्वसाधारण को भी उसका तमाशा दिखाया जा सकता है।
सुरेन्द्रसिंह-बहुत अच्छी बात है, ऐसा ही होगा।
इन्द्रजीतसिंह-इस तिलिस्म में घुसने के पहले ही मैंने सभी का साथ छोड़ दिया अर्थात् नकाबपोशों को (कैदियों को) बाहर ही छोड़कर केवल हम दोनों भाई ही इसके अन्दर घुसे और काम करते हुए धीरे-धीरे आपकी सेवा में जा पहुंचे।
सुरेन्द्रसिंह-तो शायद उसी तरह हम लोग भी यह सब तमाशा देखते हुए उसी चबूतरे की राह बाहर निकलेंगे ?
जीतसिंह--मगर क्या उन चलती-फिरती तस्वीरों का तमाशा न देखिएगा?
सुरेन्द्रसिंह--हाँ, ठीक है, उस तमाशे को तो जरूर देखेंगे।
इन्द्रजीत सिंह--तो अब यहाँ से लौट चलना चाहिए, क्योंकि इस कमरे के आगे बढ़कर फिर आज ही लौट आना कठिन है, इसके अतिरिक्त अब दिन भी थोड़ा ही रह गया है, संध्या-वन्दन और भोजन इत्यादि के लिए भी कुछ समय चाहिए और फिर उन तस्वीरों का तमाशा भी कम-से-कम चार-पांच घण्टे में पूरा होगा।
सुरेन्द्रसिंह-क्या हर्ज है, लौट चलो।
महाराज की आज्ञानुसार सब कोई वहाँ से लौटे और घूमते हुए बँगले के बाहर निकल आये, देखा तो वास्तव में दिन बहुत कम रह गया था।