करते रहे और फिर आगे की तरफ बढ़े । जब पहले भूतनाथ और देवीसिंह यहाँ आये थे, तब हम लिख चुके हैं कि इस कमरे में सदर दरवाजे के अतिरिक्त और भी तीन दरवाजे थे—इत्यादि । अतः उन दोनों ऐयारों की तरह इस समय भी सभी को साथ लिए हुए दोनों कुमार दाहिनी तरफ वाले दरवाजे के अन्दर गए, और घूमते हुए उसी बहुत बड़े और आलीशान कमरे में पहुँचे, जिसमें पहले भूतनाथ और देवी सिंह ने पहुंच कर आश्चर्य-भरा तमाशा देखा था।
इस आलीशान कमरे की तस्वीरें खूबी और खूबसूरती में संब तस्वीरों से बढ़ी-चढ़ी थी तथा दीवारों पर जंगल, मैदान पहाड़, खोह, दरे, झरने, शिकारगाह तथा शहरपनाह, किले, मोर्चे और लड़ाई इत्यादि की बहुत तस्वीरें बनी हुई थीं, जिन्हें सब कोई गौर और ताज्जुब के साथ देखने लगे।
सुरेन्द्रसिंह-(किले की तरफ इशारा करके) यह तो चुनारगढ़ की तस्वीर है।
इन्द्रजीतसिंह—जी हाँ, (उँगली का इशारा करके) और यह जमानिया के किले तथा खास बाग की तस्वीर है । इसी दीवार में से वहाँ जाने का भी रास्ता है । महाराज सूर्यकान्त के जमाने में उनके शिकारगाह और जंगल की यह सूरत थी।
वीरेन्द्रसिंह-और यह लड़ाई की तस्वीर कैसी है ? इसका क्या मतलब है ?
इन्द्रजीतसिंह-इन तस्वीरों में बड़ी कारीगरी खर्च की गई है। महाराज सूर्य-कान्त ने अपनी फौज को जिस तरह की कवायद और व्यूह-रचना इत्यादि का ढंग सिखाया था वे सब बातें इन तस्वीरों में भरी हुई हैं। एक तरकीब करने से ये सब तस्वीरें चलती-फिरती और काम करती नजर आएँगी और साथ ही इसके फौजी बाजा भी बजता हुआ सुनाई देगा अर्थात् इन तस्वीरों में जितने बाजे वाले हैं वे सब भी अपना-अपना काम करते हुए मालूम पड़ेंगे, परन्तु इस फौजी तमाशे का आनन्द रात को मालूम पड़ेगा, दिन को नहीं । इन्हीं तस्वीरों के कारण इस कमरे का नाम 'व्यूह-मण्डल' रक्खा गया है, वह देखिए ऊपर की तरफ बड़े हरफों में लिखा हुआ है।
सुरेन्द्रसिंह--यह बहुत अच्छी कारीगरी है। इस तमाशे को हम जरूर देखेंगे बल्कि और भी कई आदमियों को दिखाएंगे ।
इन्द्रदेव-बहुत अच्छा, रात हो जाने पर मैं इसका बन्दोबस्त करूँगा, तब तक आप और चीजों को देखें।
ये लोग जिस दरवाजे से इस कमरे में आये थे, उसके अतिरिक्त एक दरवाजा और भी था जिस राह से सभी को लिए दोनों कुमार दूसरे कमरे में पहुँचे । इस कमरे की दीवार बिल्कुल साफ थी अर्थात् उस पर किसी तरह की तस्वीर बनी हुई न थी। कमरे के बीचोंबीच दो चबूतरे संगमरमर के बने हुए थे जिसमें एक तो खाली था और दूसरे चबूतरे के ऊपर सफेद पत्थर की एक खूबसूरत पुतली बैठी हुई थी। इस जगह पर ठहर कर कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने अपने दादा और पिता की तरफ देखा और कहा,"नकाबपोशों की जुबानी हम लोगों का तिलिस्मी हाल जो कुछ आपने सुना है, वह तो याद ही होगा, अतः हम लोग पहली दफा तिलिस्म से बाहर निकलकर जिस सुहावनी