पड़े, तो कुछ परवाह नहीं, परन्तु साधारण विषयों की भाषा के लिए भी कोषी की खोज करनी पड़े तो निःसन्देह दोष की बात है। मेरी हिन्दी किस श्रेणी की हिन्दी है इसका निर्धारण मैं नहीं करता परन्तु मैं यह जानता हूँ कि इसके पढ़ने के लिए कोष की तलाश नहीं करनी पड़ती । चन्द्रकान्ता के आरम्भ के समय मुझे यह विश्वास न था कि उसका इतना अधिक प्रचार होगा, यह मनोविनोद के लिए लिखी गई थी, पर पीछे लोगों का अनुराग देखकर मेरा भी अनुराग हो गया और मैंने अपने उन विचारों को जिनको मैं अभी तक प्रकाश नहीं कर सका था, फैलाने के लिए इस पुस्तक को द्वार बनाया और सरल भाषा में उन्हीं मामूली बातों को लिखा जिससे मैं उस होनहार मण्डली का प्रिय- पात्र बन जाऊँ, जिसके हाथ में भारत का भविष्य सौंपकर हमें इस असार संसार से बिदा होना है। मुझे इस बात से बड़ा हर्ष है कि मैं इस विषय में सफल हुआ और मुझे ग्राहकों की अच्छी श्रेणी मिल गई । यह बात बहुत से सज्जनों पर प्रकट है कि 'चन्द्रकान्ता' पढ़ने के लिए बहुत से पुरुष नागरी की वर्णमाला सीखते हैं और जिनको कभी हिन्दी सीखना न था उन लोगों ने भी इसके लिए सीखी ।
हिन्दी के हितैषियों में दो प्रकार के सज्जन हैं : एक तो वे जिनका विचार यह है कि चाहे अक्षर फारसी क्यों न हों पर भाषा विशुद्ध संस्कृत मिश्रित होनी चाहिए और दूसरे वे जो यह चाहते हैं कि चाहे भाषा में फारसी के शब्द मिले भी हों पर अक्षर नागरी होने चाहिए। पहले मैं पंजाब के आर्यसमाजियों और धर्म सभा वालों को मान लेता हूँ, जिनके लेखों में वर्णमाला के सिवाय फारसी, अरबी को कुछ भी सहारा नहीं, सब-कुछ संस्कृत का है, और दूसरे पक्ष में मैं अपने को ठहरा लेता हूँ, जो इसके विपरीत है। बात को भी स्वीकार करता हूँ कि जिस प्रकार फारसी, वर्णमाला उर्दू का शरीर और अरबी, फारसी के उपयुक्त शब्द उसके जीवन हैं, ठीक उसी प्रकार नागरी वर्णमाला हिन्दी का शरीर और संस्कृत के उपयुक्त शब्द उसके प्राण कहे जा सकते हैं । यदि यह देश यवनों के अधिकार में न हुआ होता, और यदि कायस्थादि हिन्दू जातियों में उर्दू भाषा का प्रेम इस उसी प्रकार हमारे ग्रंथों की सजीव उत्पत्ति होती जिस प्रकार द्विज बालकों की होती है। शरीर में यदि आत्मा न हो तो वह बेकार है और यदि आत्मा को उपयुक्त शरीर न मिल कर पशु पक्षी आदि शरीर मिल जाये, तो भी वह निष्फल ही है, इसलिए शरीर बनाकर फिर उसमें आत्मदेव की स्थापना करना ही न्याययुक्त और लाभप्रद है। 'चन्द्रकान्ता' और 'सन्तति' में यद्यपि इस बात का पता नहीं लगेगा कि कब और कहाँ भाषा का परि- वर्तन हो गया, परन्तु उसके आरम्भ और अन्त में आप ठीक वैसा ही परिवर्तन पायेंगे, बालक और वृद्ध में । एक दम से शब्दों का प्रचार करते तो कभी सम्भव न था कि उतने संस्कृत शब्द हम उन कुपढ़ ग्रामीण लोगों को याद करा देते, जिनके निकट काला अक्षर बाईस के बराबर था ।मेरे इस कर्तव्य का आश्चर्यमय फल देखकर वे लोग भी बोधगम्य उर्दू के शब्दों को अपनी विशुद्ध हिन्दी में लाने लगे हैं जो आरम्भ में इसीलिए मुझ पर कटाक्षपात करते थे। इस प्रकार प्राकृतिक प्रवाह के साथ-साथ साहित्यसेवियों की सरस्वती का प्रवाह बदलता देखकर समय के बदलने का अनुमान करना कुछ अनुचित