चाहे कैसे ही रहे हों पर सामाजिक विचार उनके बहुत ही प्राञ्जल थे और वे समयानुकूल काम करना खूब जानते थे, विशेषत जिस ढंग की हिन्दी वे लिख गए हैं उसी से वर्तमान में हिन्दी का रास्ता कुछ साफ हुआ है।
चाहे कोई हिन्दू हों चाहे जैन या बौद्ध हों और चाहे आर्य समाजी या धर्म-समाजी ही क्यों न हों परन्तु जिन सज्जनों के माननीय अवतारों और पूर्वजों ने इस पुण्य भूमि का अपने आविर्भाव से गौरव बढ़ाया है उनमें ऐसा अभागा कौन होगा जो पुण्यता और मधुरता-युक्त संस्कृत भाषा के शब्दों का प्रचुर प्रचार न चाहेगा? मेरे विचार में किसी विवेकी भारत सन्तान के विषय में केवल यह देखकर कि वह विदेशी भाषा के शब्दों का प्रसार कर रहा है यह गढन्त कर लेना कि वह देववाणी के पवित्र शब्दों का विरोधी है भ्रम ही नहीं किन्तु अन्याय भी है। देखना यह चाहिए कि ऐसा करने से उसका मतलब क्या है ? भारतवर्ष में आठ सौ वर्ष तक विदेशी यवनों का राज्य रहा है इसलिए फारसी-अरबी के शब्द हिन्दू समाज में "न पठेत् यावनी भाषा" की दीवार लांघ कर उसी प्रकार आ घुसे जिस प्रकार हिमालय के उन्नत मस्तक को लांघकर वे स्वयं यहां आ गए, यहाँ तक कि महात्मा तुलसीदास जी जैसे भगवद्भक्त कवियों को भी "गरीब-निवाज" आदि शब्दों का बर्ताव दिल खोल कर करना पड़ा।
आठ सौ वर्ष के कुसंस्कार को जो गिनती के दिनों में दूर करना चाहते हैं, उनके उत्साह और साहस की प्रशंसा करने पर भी हम यह कहने के लिए मजबूर हैं कि वे अपने बहुमूल्य समय का सदुपयोग नहीं करते बल्कि जो कुछ वे कर सकते थे, उससे भी दूर हटते हैं। यदि ईश्वरचन्द्र विद्यासागर सीधे-सादे शब्दों से बंगला में काम न लेते तो उत्तर काल के लेखकों को संस्कृत शब्द के बाहुल्य प्रचार का अवसर न मिलता और यदि राजा'शिवप्रसादी हिन्दी' प्रकट न होती तो सरकारी पाठशालाओं में हिन्दी के चन्द्रमा की चाँदनी मुश्किल से पहुंचती। मेरे बहुत से मित्र हिन्दुओं की अकृतज्ञता का यों वर्णन करते हैं कि उन्होंने हरिश्चन्द्रजी जैसे देश हितैषी पुरुष की उत्तम-उत्तम पुस्तकें नहीं खरीदी, पर मैं कहता हूँ कि यदि बाबू हरिश्चन्द्र अपनी भाषा को थोड़ा सरल करते तो हमारे भाइयों को अपने समाज पर कलंक लगाने की आवश्यकता न पड़ती और स्वाभाविक शब्दों के मेल से हिन्दी की पैसिजर भी मेल बन जाती। प्रवाह के विरुद्ध चलकर यदि कोई कृतकार्य हो तो निःसन्देह उसकी बहादुरी है, परन्तु बड़े-बड़े दार्शनिक पंडितों ने इसको असम्भव ठहराया है । सारसुधानिधि और कविवचनसुधा की भाषा यद्यपि भावुक-जनों के लिए आदर की वस्तु थी, परन्तु समय के उपयोगी न थी। हमारे 'सुदर्शन' की लेख-प्रणाली को हिन्दी के धुरन्धर लेखकों और विद्वानों ने प्रशंसा के योग्य ठहराया है,परन्तु साधारणजन उससे कितना लाभ उठा सकते है यह सोचने की बात है। यदि महाकवि भवभूति के समान किसी भविष्य पुरुष की आशा ही पर ग्रन्थकारों और लेखकों को यत्न करना चाहिए, तब तो मैं सुदर्शन के सम्पादक पण्डित माधवप्रसाद मिश्र को भी भविष्य की आशा पर बधाई देता हूँ, पर यदि ग्रन्थकारों को भविष्य की अपेक्षा वर्तमान से अधिक सम्बन्ध है तो निःसन्देह इस विषय में मुझे आपत्ति है ।
किसी दार्शनिक ग्रंथ या पत्र की भाषा के लिए यदि किसी बड़े कोष को टटोलना