कैदियों ने बहुत सिर पीटा, मगर उनकी कुछ न सुनी गई। जो कुछ महाराज ने फैसला लिखाया था उसी मुताबिक कार्रवाई की गई और इस फैसले को सभी ने पसन्द किया।
इन सब कामों से छुट्टी पाने के बाद एक बहुत बड़ा जलसा किया गया और कई दिनों तक खुशी मनाने के बाद सब कोई बिदा कर दिये गए। राजा गोपालसिंह कैदियों को साथ लेकर जमानिया चले गए, लक्ष्मीदेवी उनके साथ गई और तेजसिंह तथा और भी बहुत से आदमी महाराज की तरफ से उनको साथ पहुँचाने के लिए गए। जब वे लौट आये तब औरतों को साथ लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह वगैरह पुनः तिलिस्म में गए और उन्हें तिलिस्म की खूब सैर कराई। कुछ दिन बाद रोहतासगढ़ के तहखाने की भी उन लोगों को सैर कराई और फिर सब कोई हँसी-खुशी से दिन बिताने लगे।
प्रेमी पाठक महाशय, अब इस उपन्यास में मुझे सिवाय इसके और कुछ कहना नहीं है कि भूतनाथ ने प्रतिज्ञानुसार अपनी जीवनी लिख कर दरबार में पेश की और महाराज ने पढ़कर उसे खजाने में रख दिया। इस उपन्यास का भूतनाथ की खास जीवनी से कोई सम्बन्ध न था इसलिए इसमें वह जीवनी नत्थी न की गई, हाँ खास-खास भेद जो सतनाथ से सम्बन्ध रखते थे खोल दिये गए, तथापि भूतनाथ की जीवनी जिसे चन्द्रकान्ता सन्तति का उपसंहार भाग भी कह सकेंगे स्वतन्त्र रूप से लिख कर अपने प्रेमी पाठकों की नजर करूँगा, मगर इसके बदले में अपने प्रेमी पाठकों से इतना जरूर कहूँगा कि इस उपन्यास में जो कुछ भूल चूक रह गई हो और जो भेद रह गए हों वह मुझे अवश्य बतावें जिसमें 'भूतनाथ की जीवनी' लिखते समय उन पर ध्यान रहे, क्योंकि इतने बड़े उपन्यास में मेरे ऐसे अनजान आदमी से किसी भी तरह की त्रुटि का रह जाना कोई आश्चर्य नहीं है।
प्रिय पाठक महाशय, अब चन्द्रकान्ता सन्तति की लेख प्रणाली के विषय में भी कुछ कहने की इच्छा होती है।
जिस समय मैंने 'चन्द्रकान्ता' लिखनी आरम्भ की थी उस समय कविवर प्रतापनारायण मिश्र और पण्डितवर अम्बिकादत्त व्यास जैसे धुरंधर किन्तु अनुद्धत सुकवि और सुलेखक विद्यमान थे, तथा राजा शिवप्रसाद, राजा लक्ष्मणसिंह जैसे सुप्रतिष्ठित पुरुष हिन्दी की सेवा करने में अपना गौरव समझते थे, परन्तु अब न वैसे मार्मिक कवि हैं और वैसे सुलेखक। उस समय हिन्दी के लेखक थे परन्तु ग्राहक न थे, इस समय ग्राहक हैं पर वैसे लेखक नहीं हैं। मेरे इस कथन का यह मतलब नहीं है कि वर्तमान समय के साहित्यसेवी प्रतिष्ठा के योग्य नहीं हैं, बल्कि यह मतलब है कि जो स्वर्गीय सज्जन अपनी लेखनी से हिन्दी के आदि युग में हमें ज्ञान दे गए हैं वे हमारी अपेक्षा बहुत बढ़-चढ़ कर उनकी लेख प्रणाली में चाहे भेद रहा हो, परन्तु उन सब का लक्ष्य यही था कि इस भूमि में किसी तरह मातृ-भाषा का एकाधिपत्य हो, लेकिन यह कोई नियम की बात नहीं है कि वैसे लोगों से कुछ भूल हो ही नहीं उनसे भूल हुई तो यही कि प्रचलित शब्दों पर उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया। राजा शिवप्रसादजी के राजनीति के विचार