करें, क्योंकि जो बात मशहूर होती है ग्रंथकर्ता को उसके झूठ-सच के बारे में जरूर कुछ लिखना चाहिए। तो भी ग्वालियर का इतिहास तैयार हो जाने पर उस खिंचाव के बारे में जो दीवार के उस तरफ है पूरा-पूरा हाल लिखेंगे।"
ग्वालियर की जमीन में कई तरह की खासियत हैं जिनको हम उस हिस्टरी की समालोचना में (यदि वह बातें हिस्टरी से बच रहीं) जाहिर करेंगे। दीवार-कहकहा के सम्बन्ध में जहाँ तक अपना खयाल था आप लोगों पर प्रकट किया, यानी दुनिया के उस हिस्से की सतह पर दीवार नहीं बनाई गई है जहाँ ऑक्साइड आफ नाइट्रोजन है बल्कि पहले दूसरी जगह बनाकर फिर कल के जरिये से वहाँ उठाकर रख दी गई है । यदि यह कहा जाय कि गैस सिर्फ उसी जगह थी और जगह क्यों नहीं है तो उसका सहज जवाब यह है कि जमीन से आसमान तक तलाश करो, किसी-न-किसी ऊँचाई पर तुमको गैस मिल ही जायगी। दूसरे यह कि कोई हवा सिर्फ खास जगह पर मिलती है, मसलन बन्द जगह की हलाक करने वाली बन्द हवा, जैसा कि अक्सर कुएँ में आदमी बर्तते हैं और घबरा कर मर जाते हैं। यदि यह कहा जाय कि वहाँ हवा नहीं है तो यह नहीं हो सकता।
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पहले जमाने के आदमी अपनी कारीगरी का अच्छा-अच्छा नमूना छोड़ गये हैं- जैसे मिट्टी की मीनार, या नौशेरवानी बाग या जवाहरात के पेड़ों पर चिड़ियों का गाना या आगरे का ताज जिसकी तारीफ में तारीख-तुराब के बुद्धिमान लेखक ने किसी लेखक का यह फिकरा लिखा है जिसका संक्षेप यह है कि "इसमें कुछ बुराई नहीं, यदि है तो यही है कि कोई बुराई नहीं।"देखिये आगरा में बहुत-सी बादशाही समय की टूटी-फूटी इमारतें हैं जिनमें पानी दौड़ाने के नल (पाइप) वैसे ही मिट्टी के हैं जैसे कि आज-कल मिट्टी के गोल परनाले होते हैं, उन्हीं नलों से दूर-दूर से पानी आता और नीचे से ऊपर कई मरातिम तक जाता था। इसी तरह से ताजगंज के फव्वारों के नल भी थे तथा और भी इसी तरह के हैं जिनमें से एक टूटने पर लोहे के नल लगाये गये, जब उनसे काम न चला तो बड़े-बड़े भारी पत्थरों में छेद करके लगाये गये, परन्तु बेफायदा हुआ।
उन फव्वारों की यह तारीफ है कि जो जितना ऊँचा जा रहा है उतनी ही ऊँचाई पर यहाँ से वहाँ तक बराबर धारें गिरती हैं । अब जो कहीं बनते हैं तो धार बराबर करने को ऊँची-नीची सतह पर फव्वारे लगाने पड़ते हैं।
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इसी तरह का तिलिस्म के विषय का एक लेख ता० 30 मार्च, सन् 1905 के अवध अखबार में छपा था, उसका अनुवाद भी हम नीचे लिखते हैं-
"गुजरे हुए जमाने के काबिल-कदर यादगारो ! तुमको याद करके हम कहाँ तक