चिट्ठियाँ मेरे सामने फेंक दीं, जो मैंने दारोगा को लिखी थीं और जिनमें भूतनाथ के गिरफ्तार करा देने का वादा किया था।"
"मैं सरकार में बयान कर चुका हूँ, कि उस समय दारोगा से इस ढंग का पत्र-व्यवहार करने से मेरा मतलब क्या था और मैंने भूतनाथ को दिखाने के लिए दारोगा के हाथ की चिट्ठियाँ बटोरकर किस तरह दारोगा से साफ इनकार कर दिया था, मगर उस मौके पर मेरे पास वे चिट्ठियाँ मौजूद न थीं कि मैं उन्हें भूतनाथ को दिखाता और भूतनाथ के पास वे चिट्ठियाँ मौजूद थीं जो दारोगा ने उसे दी थीं और जिनके सबब से दारोगा का मन्त्र चला था।" अतः उन चिट्ठियों को देखकर मैंने भूतनाथ से कहा––
मैं––हाँ-हाँ, इन चिट्ठियों को मैं जानता हूँ और बेशक ये मेरे हाथ की लिखी हुई हैं, मगर मेरे इस लिखने का मतलब क्या था और इन चिट्ठियों से मैंने क्या काम निकाला सो तुम्हें मालूम नहीं हो सकता, जब तक कि बस, दारोगा के हाथ की लिखी हुई चिट्टियाँ तुम न पढ़ लो, जो मेरे पास मौजूद हैं।
भूतनाथ––(मुस्कराकर) बस-बस-बस, ये सब धोखेबाजी के ढर्रे रहने दीजिए। भूतनाथ से यह चालाकी न चलेगी, सच तो यह है कि मैं खुद कई दिनों से तुम्हारी खोज में हूँ। इत्तिफाक से तुम स्वयं मेरे पंजे में आकर फँस गये और अब किसी तरह नहीं निकल सकते। उस जंगल में मैं तुम दोनों को काबू में नहीं कर सकता था, इसलिए सब्जबाग दिखाता हुआ यहाँ तक ले आया और भोजन में बेहोशी की दवा खिलाकर बेकाम कर दिया। अब तुम लोग मेरा कुछ भी नहीं कर सकते। समझ लो कि तुम दोनों जहन्नुम में भेजे जाओगे, जहाँ से लौटकर आना मुश्किल है।
"भूतनाथ की ऐसी बातें सुनकर हम दोनों को क्रोध चढ़ आया, मगर उठने की कोशिश करने पर कुछ भी न कर सके, क्योंकि नशे का पूरा-पूरा असर हो गया था और तमाम बदन में कमजोरी आ गई थी।"
"थोड़ी ही देर बाद हम लोग बेहोश हो गये और तन-बदन की सुध न रही। जब आँखें खुलीं, तो अपने को दारोगा के मकान में कैद पाया और सामने दारोगा जयपाल हरनामसिंह और बिहारीसिंह को बैठे हुए देखा। रात का समय था और मेरे हाथ-पैर एक खम्भे के साथ बंधे हुए थे। अर्जुनसिंह न मालूम कहाँ थे और उन पर न जाने क्या बीत रही थी।"
"दारोगा ने मुझसे कहा––कहो, दिलीपशाह, तुमने तो मुझ पर बड़ा भारी जाल फैलाया था, मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।"
मैं––मैंने क्या जाल फैलाया था?
दारोगा––क्या इसके कहने की भी जरूरत है? नहीं, बस, इस समय हम इतना ही कहेंगे कि तुम्हारा शागिर्द हमारी कैद में है और तुमने मेरे लिए जो कुछ किया है, उसका हाल हम उसकी जुबानी सुन चुके हैं। अब अगर वह चिट्ठी मुझे दे दो जो गोपालसिंह के बारे में मनोरमा का नाम लेकर जबरदस्ती मुझसे लिखवाई गई थी तो मैं तुम्हारा सब कसूर माफ कर दूँ।
मैं––मेरी समझ में नहीं आता आप किस चिट्ठी के बारे में मुझसे कह रहे हैं।