पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१९

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इस चिट्ठी को पढ़कर मैं बहुत देर तक रोता और अफसोस करता रहा। इसके बाद उठकर दारोगा के मकान की तरफ रवाना हुआ। मगर आज भी अपने बचाव का पूरा-पूरा इन्तजाम करता गया। मुलाकात होने पर दारोगा ने कल से ज्यादा खातिर- दारी के साथ मुझे बैठाया और देर तक बातचीत करता रहा । मगर जब मैं सरयू के पास गया तो उसकी हालत कल से ज्यादा खराब देखने में आई, अर्थात् आज उसमें बोलने की भी ताकत न थी। मुख्तसिर यह है कि तीसरे दिन बेहोश और चौथे दिन आधी रात के समय मैंने सरयू को मुर्दा पाया । उस समय मेरी क्या हालत थी, सो मैं बयान नहीं कर सकता। अस्तु, उस समय जो कुछ करना उचित था और मैं कर सकता था, उसे सवेरा होने के पहले ही करके छुट्टी किया, अपने खयाल से सरयू के शरीर की दाह-क्रिया इत्यादि करके पंचतत्व में मिला दिया और इस बात की इत्तिला इन्द्रदेव को दे दी। इसके बाद इन्दिरा के लिए अपने अड्डे पर गया और वहाँ उसे न पाकर बड़ा ताज्जुब हुआ। पूछने पर मेरे आदमियों ने जवाब दिया कि "हम लोगों को कुछ भी खबर नहीं कि वह कब और कहाँ भाग गई।" इस बात से मुझे सन्तोष न हुआ। मैंने अपने आद- मियों को सख्त सजा दी और बराबर इन्दिरा का पता लगाता रहा। अब सरयू के मिल जाने से मालूम हुआ कि उस दिन मेरी कम्बख्त आँखों ने मेरे साथ दगा की और दारोगा के मकान में बीमार सरयू को मैं पहचान न सका। मेरी आँखों के सामने सरयू मर चुकी थी और मैंने खुद अपने हाथ से इन्द्रदेव को यह समाचार लिखा था, इसलिए उन्हें किसी तरह का शक न हुआ और सरयू तथा इन्दिरा के गम में ये दीवाने से हो गये, हर तरह के चैन और आराम को इन्होंने इस्तीफा दे दिया और उदासीन हो एक प्रकार से साधू ही बन बैठे। मुझसे भी मुहब्बत कम कर दी और शहर का रहना छोड़ अपने तिलिस्म के अन्दर चले गये और उसी में रहने लगे, मगर न मालूम क्या सोचकर इन्होंने मुझे वहाँ का रास्ता न बताया। मुझ पर भी इस मामले का बड़ा असर पड़ा क्योंकि ये सब बातें मेरी ही नालायकी के सबब से हुई थीं। अतएव मैंने उदासीन हो रणधीरसिंहजी की नौकरी छोड़ दी और अपने बाल-बच्चों तथा स्त्री को भी उन्हीं के यहां छोड़, बिना किसी को कुछ कहे जंगल और पहाड़ का रास्ता लिया। उधर एक और स्त्री से मैंने शादी कर ली थी जिससे नानक पैदा हुआ है। उधर भी कई ऐसे मामले हो गये जिनसे मैं बहुत उदास और परेशान हो रहा था, उसका हाल नानक की जुबानी तेजसिंह को मालूम ही हो चुका है। बल्कि आप लोगों ने भी तो सुना ही होगा। अस्तु, हर तरह से अपने को नालायक समझकर मैं निकल भागा और फिर मुद्दत तक अपना मुंह किसी को न दिखाया। इधर जब जमाने ने पलटा खाया तब मैं कमलिनीजी से जा मिला। उन दिनों मेरे दिल में विश्वास हो गया था कि इन्द्रदेव मुझसे रंज हैं। अतः मैंने इनसे भी मिलना-जुलना छोड़ दिया, बल्कि यों कहना चाहिए कि हमारी इतनी पुरानी दोस्ती का उन दिनों अन्त हो गया था।

इन्द्रदेव —— बेशक, यही बात थी। स्त्री के मरने की खबर सुन कर मुझे बड़ा ही रंज हुआ। मुझे कुछ तो भूतनाथ की जुबानी और कुछ तहकीकात करने पर मालूम ही हो चुका था कि मेरी लड़की और स्त्री इसी की बदौलत जहन्नुम चली गई। अस्तु,