सुरेन्द्रसिंह–सजा हलकी तो नहीं है, मगर किसी की आत्मा..
गोपालसिंह-(बात काटकर) खैर उन कम्बख्तों के लिए आप कुछ न सोचिये, उन्हें मैं जमानिया ले जाऊँगा और उसी जगह उनकी मरम्मत करूँगा।
वीरेन्द्रसिंह--इन सब रज देने वाली बातों का जिक्र जाने दो, यह बताओ कि अगर हम लोग जमानिया के तिलिस्म की सैर करना चाहें तो कैसे कर सकते हैं?
गोपालसिंह--यह तो मैं आप ही निश्चय कर चुका हूँ कि आप लोगों को वहाँ की सैर जरूर कराऊँगा।
इन्द्रजीतसिंह--(गोपाल से) हाँ, खूब याद आया। वहां के बारे में मुझे भी दो- एक बातों का शक बना हुआ है।
गोपालसिंह--वह क्या?
इन्द्रजीतसिंह--एक तो यह बताइए कि तिलिस्म के अन्दर जिस मकान में पहले पहल आनन्दसिंह फंसे थे, उस मकान में सिंहासन पर बैठी हुई लाड़िली की मूरत कहाँ से आई और उस आईने (शीशे) वाले मकान में, जिसमें कमलिनी, लाड़िली तथा हमारे ऐयारों की सी मूरतों ने हमें धोखा दिया, क्या था ? जब हम दोनों उसके अन्दर गये तो उन मूरतों को देखा जो नालियों पर चला करती थीं, मगर ताज्जुब कि
गोपालसिंह--(बात काट कर) वह सब कार्रवाई मेरी थी। एक तौर पर मैं आप लोगों को कुछ-कुछ तमाशा भी दिखाता जाता था। वे सब मूरतें बहुत पुराने जमाने की बनी हुई हैं मगर मैंने उन पर ताजा रंग-रोगन चढ़ाकर कमलिनी, लाडिली वगैरह की सूरतें बना दी थीं।
इन्द्रजीतसिंह--ठीक है। मेरा भी यही खयाल था। अच्छा, एक बात और बताइये!
गोपालसिंह--पूछिये।
इन्द्रजीतसिंह---जिस तिलिस्मी मकान में हम लोग हँसते-हँसते कूद पड़े थे उसमें कमलिनी के कई सिपाही भी जा फंसे थे और...
गोपलसिंह--जी हाँ, ईश्वर की कृपा से वे लोग कैदखाने में जीते-जागते पाये गये और इस समय जमानिया में मौजूद हैं। उन्हीं में से एक आदमी को दारोगा ने गठरी बाँध कर रोहतासगढ के किले में छोड़ा था जब मैं कृष्ण जिन्न बनकर पहले-पहले वहाँ गया था।
इन्दजीतसिंह--यहबहुत अच्छा हुआ । उन बेचारों की तरफ से मुझे बहुत ही खुटका रहता था।
वीरेन्द्रसिंह--(गोपालसिंह से) आज दलीपशाह की जुबानी जो कुछ उसका किस्सा सुनने में आया उससे हमें बड़ा ही आश्चर्य हुआ। यद्यपि उसका किस्सा अभी तक समाप्त नहीं हुआ और समाप्त होने तक शायद और भी बहुत-सी बातें नई मालूम हों,
1. देखिए नौवां भाग, दूसरा बयान।
2. देखिए सोलहवाँ भाग, छठवां बयान।
3. देखिए बारहवाँ भाग, सातवाँ वयान।