दी। उसे देखकर और सब हाल सुनकर इन्द्रदेव बेचैन हो गए, आधे घण्टे तक तो ऐसा मालूम होता था कि उन्हें तन-बदन की सुध नहीं है इसके बाद उन्होंने अपने को सम्हाला और मुझसे कहा-"बेशक, दुश्मन लोग अपना काम कर गए, मगर तुमने भी बहुत बड़ी भूल की, कि दो दिन की देर कर दी और आज मेरे पास खबर करने के लिए आये ! अभी दो ही घड़ी बीती हैं कि मुझे उनके बीमार होने की खबर मिली है, ईश्वर ही कुशल करें!"
इसके जवाब में चुप रह जाने के सिवाय मैं कुछ भी न बोल सका और अपनी भूल स्वीकार कर ली। कुछ और बातचीत होने के बाद इन्द्रदेव ने मुझसे कहा, "खैर, जो कुछ होना था सो हो गया, अब तुम भी मेरे साथ जमानिया चलो, वहाँ पहुँचने तक अगर ईश्वर कुशल रखी तो जिस तरह बन पड़ेगा, उनकी जान बचायेंगे!"
अतः हम दोनों आदमी तेज घोड़ों पर सवार होकर जमानिया की तरफ रवाना हो गये और साथियों को पीछे से आने की ताकीद कर गए।
जब हम लोग जमानिया के करीब पहुँचे और जमानिया सिर्फ दो कोस की दूरी पर रह गया तो सामने से कई देहाती आदमी रोते और चिल्लाते हुए आते दिखाई पड़े। हम लोगों ने घबराकर रोने का सबब पूछा तो उन्होंने हिचकियाँ लेकर कहा कि हमारे राजा गोपालसिंह हम लोगों को छोड़कर बैकुण्ठ चले गये।
सुनने के बाद हम लोगों का कलेजा धक् हो गया। आगे बढ़ने की हिम्मत न पड़ी और सड़क के किनारे एक घने पेड़ के नीचे जाकर घोड़ों पर से उतर पड़े। दोनों घोड़ों को पेड़ के साथ बांध दिया और जीनपोश बिछाकर बैठ गये, आँखों से आंसू की धारा बहने लगी। घण्टे भर तक हम दोनों में किसी तरह की बातचीत न हुई, क्योंकि चित्त बड़ा ही दुःखी हो गया था। उस समय दिन अनुमान तीन घण्टे के करीब बाकी था। हम दोनों आदमी पेड़ के नीचे बैठे आंसू बहा रहे थे कि यकायक जमानिया से लौटता हुआ गिरिजा- कुमार भी उसी जगह आ पहुँचा। उस समय उसकी सूरत बदली हुई थी, इसलिए हम लोगों ने तो नहीं पहचाना, परन्तु वह हम लोगों को देखकर स्वयं पास चला आया और अपना गुप्त परिचय देकर बोला, "मैं गिरिजाकुमारहूँ।"
इन्द्रदेव--(आँसू पोंछकर) अच्छे मौके परतुम आ पहुँचे । यह बताओ कि क्या वास्तव में राजा गोपालसिंह मर गये?
गिरिजाकुमार--जी हाँ, उनकी चिता मेरे सामने लगाई गई और देखते-ही- देखते उनकी लाश पंचतत्व में मिल गई, परन्तु अभी तक मेरे दिल को विश्वास नहीं होता कि राजा साहब मर गये।
इन्द्रदेव--(चौंककर) सो क्यों? यह कैसी बात?
गिरिजाकुमार--जी हाँ, हर तरह का रंग-ढंग देखकर मेरा दिल यह कबूल नहीं करता कि वे मर गये।
-क्या तुम्हारी तरह वहाँ और भी किसी को इस बात का शक है?
गिरिजाकुमार--नहीं, ऐसा तो नहीं मालूम होता, बल्कि मैं तो समझता हूँ कि खास दारोगा साहब को भी उनके मरने का विश्वास है, मगर क्या किया जाये. मुझे