दारोगा--(ताज्जुब का चेहरा बनाकर) न मालूम तुम क्या कह रहे हो! मैंने मनोरमा से ऐसा कोई वादा नहीं किया!
गिरिजाकुमार--तो शायद मनोरमाजी ने मुझसे झूठ कहा होगा। मैं इस बात को तो नहीं जानता, हाँ, उन्होंने जो आज्ञा दी है सो आपसे कह रहा हूँ।
इतना सुनकर दारोगा कुछ सोच में पड़ गया। मालूम होता था कि उसे गिरिजा- कुमार की बातों पर विश्वास हो रहा है, मगर फिर भी बात को टालना चाहता है।
दारोगा--मगर ताज्जुब है कि मनोरमा ने मेरे साथ बुरा ऐसा बर्ताव क्यों किय और उसे जो कुछ कहना था वह स्वयं मुझसे क्यों नहीं कहा?
गिरिजाकुमा--मैं इस बात का जवाब क्योंकर दे सकता हूँ?
दारोगा--अगर मैं तुम्हारे कहे मुताबिक चिट्ठी लिखकर न दूं तो?
गिरिजाकुमार--तब इस कोड़े से आपकी खबर ली जायेगी और जिस तरह हो सकेगा, आपसे चिट्ठी लिखाई जायेगी। आप खुद समझ सकते हैं कि यहाँ आपका कोई मददगार नहीं पहुंच सकता।
दारोगा--क्या तुमको या मनोरमा को इस बात का कुछ भी खयाल नहीं है कि चिट्ठी लिखकर भी छूट जाने के बाद मैं क्या कर सकता हूँ?
गिरिजाकुमार--अब ये सब बातें तो आप उन्हीं से पूछियेगा ! मुझे जवाब देने की कोई जरूरत नहीं। मैं सिर्फ उनके हुक्म की तामील करना जानता हूँ । बताइए आप जल्दी चिट्ठी लिख देते हैं या नहीं, मैं ज्यादा देर तक इन्तजार नहीं कर सकता।
दारोगा--(झुंझलाकर और यह समझकर कि यह मुझ पर हाथ नहीं उठायेगा, केवल धमकाता है)अबे, मैं चिट्ठी किस बात की लिख दूं!तूनेयहव्यर्थ की बकवक लगा रखी है!
इतना सुनते ही गिरिजाकुमार ने कोड़े जमाने शुरू किए । पाँच-सात ही कोड़े खाकर दारोगा बिलबिला उठा और हाथ जोड़कर बोला, "बस-बस, माफ करो, जो कुछ कहो, मैं लिख देने को तैयार हूं!"
गिरिजाकुमार ने झट कलम-दवात और कागज अपने बटुए में से निकालकर दारोगा के सामने रख दिया और उसके हाथ की रस्सी ढीली कर दी। दारोगा ने उसकी इच्छानुसार चिट्ठी लिख दी। चिट्ठी को अपने कब्जे में कर लेने के बाद उसने दारोगा की तलाशी ली, कमर में खंजर और कुछ अशर्फियाँ निकलीं, वह भी ले लेने के बाद दारोगा के हाथ-पैर खोल दिए और बता दिया कि फलां जगह आपके रथ और घोड़े खड़े हैं, जाइए, सीधे कस-कसाकर अपने घर का रास्ता लीजिए।
इतना कहकर गिरिजाकुमार चला गया और फिर दारोगा को मालूम न हुआ कि वह कहाँ गया और क्या हुआ।
च० स०-6-11