पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१८

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बताया कि मुझे कैद क्यों किया था। खैर, जो भी हो, इस समय तो मैं आखिरी दम का इन्तजार कर रही हूँ और सब तरफ से मोह-माया को छोड़ ईश्वर से लौ लगाने का उद्योग कर रही हूँ। मैं समझ गई हूँ कि तुम मुझे लेने के लिए आये हो । मगर दया करके मुझे इसी जगह रहने दो और इधर-उधर कहीं मत ले जाओ, क्योंकि इस समय मैं किसी अपने को देख मायामोह में आत्मा को फंसाना नहीं चाहती और न गंगाजी का सम्बन्ध छोड़ कर दूसरी किसी जगह मरना ही पसन्द करती हूं, यहाँ यों भी अगर गंगाजी में फेंक दी जाऊँगी, तो मेरी सद्गति हो जायगी, बस यही आखिरी प्रार्थना है। एक बात और भी है कि मेरे लिए दारोगा साहब को किसी तरह की तकलीफ न देना और ऐसा करना जिसमें इनकी जरा बेइज्जती न हो, यह मेरी वसीयत है और यही मेरी आरजू है । अब श्रीगंगाजी को छुड़ाकर मुझे नरक में मत डालो।" इतना कह सरयू कुछ देर को चुप हो गई और मुझे उसकी अवस्था पर रुलाई आने लगी। मैं और भी कुछ देर तक उसके पास बैठा रहा और धीरे-धीरे बातें भी होती रहीं। मगर जो कुछ उसने कहा उसका तत्त्व यही था कि मुझे यहाँ से मत हटाओ और दारोगा को कुछ तकलीफ मत दो। उस समय मेरे दिल में यही बात आई कि इन्द्रदेव को इस बात की इत्तिला दे देनी चाहिए। वह जैसी आज्ञा देंगे किया जायगा। मगर अपना यह विचार मैंने दारोगा से नहीं कहा क्योंकि उसे मैं इन्द्रदेव की तरफ से बेफिक्र कर चुका था और कह चुका था कि सरयू और इन्दिरा के साथ जो कुछ बर्ताव तुमने किया है, उसकी इत्तिला मैं इन्द्रदेव को न दूंगा, दूसरे को कसूरवार ठहराकर तुम्हारा नाम बचा जाऊँगा । अतः मैं सरयू से दूसरे दिन मिलने का वायदा करके वहाँ से उठा और अपने डेरे पर चला आया । यद्यपि रात बहुत कम बाकी रह गई थी, परन्तु मैंने उसी समय अपने एक खास आदमी को पत्र देकर इन्द्रदेव के पास रवाना कर दिया और ताकीद कर दी कि एक घोड़ा किराये का लेकर दौड़ा-दौड़ चला जाय और जहाँ तक हो सके पत्र का जवाब लेकर जल्द ही लौट आवे । दूसरे दिन आधी रात जाते-जाते तक वह आदमी लौट आया और उसने इन्द्रदेव का पत्र मेरे हाथ में दिया, लिफाफा खोल कर मैंने पढ़ा । उसमें यह लिखा हुआ था ——

"तुम्हारा पत्र पढ़ने से कलेजा हिल गया । सच तो यह है कि दुनिया में मुझ-सा बदनसीब भी कोई न होगा ! खैर, परमेश्वर की मर्जी ही ऐसी है तो मैं क्या कर सकता हूँ। दारोगा के बारे में मैंने जो प्रतिज्ञा तुमसे की है, उसे झूठ न होने दूंगा। मैं अपने कलेजे पर पत्थर रख कर सब कुछ सहूँगा। मगर वहाँ जाकर बेचारी सरयू को अपना मुंह न दिखाऊँगा और न दारोगा से मिलकर उसके दिल में किसी तरह का शक ही आने दूंगा। हाँ, अगर सरयू की जान बचती नजर आवे या इस बीमारी से बच जाय तो उसे जिस तरह मुनासिब समझना मेरे पास पहुंचा देना और अगर वह मर जाय तो मेरी जगह तुम बैठे ही हो, उसकी अन्त्येष्टि क्रिया अपनी हिम्मत के मुताबिक करके मेरे पास आना। मेरी तबीयत अब दुनिया से हट गई, बस, इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कहना चाहता । हाँ, यदि कुछ कहना होगा तो तुमसे मुलाकात होने पर कहूँगा। आगे जो ईश्वर की मर्जी ।

तुम्हारा वही-इन्द्रदेव !"