मनोरमा--और इसमें आपको कुछ करना भी न पड़ेगा, सब काम मायारानी ठीक कर लेंगी।
दारोगा-(चौंककर) क्या मायारानी का भी ऐसा इरादा है?
मनोरमा—जी हाँ, वह इस काम के लिए तैयार हैं, मगर आपसे डरती हैं, आप आज्ञा दें, तो सब-कुछ ठीक हो जाये।
दारोगा--तो तुम उसी की तरफ से इस बात की कोशिश कर रही हो?
मनोरमा--बेशक ! साथ ही इसमें आपका और अपना भी फायदा समझती हूँ, तब ऐसा कहती हूँ। (दारोगा के गले में हाथ डालकर) बस, आप आज्ञा दे दीजिए।
दारोगा--(मुस्कराकर) खैर, तुम्हारी खातिर मुझे मंजूर है, मगर एक काम करना कि मायारानी से और मुझसे इस बारे में बातचीत न कराना, जिसमें मौका पड़े तो मैं यह कहने के लायक रह जाऊँ कि मुझे इसकी कुछ भी खबर नहीं । तुम मायारानी की दिलजमई करा दो कि दारोगा साहब इस बारे में कुछ भी न बोलेंगे, तुम जो कुछ चाहो कर गुजरो, मगर साथ ही इसके इस बात का खयाल रखो कि सर्वसाधारण को किसी तरह का शक न होने पाये और लोग ये समझें कि गोपालसिंह अपनी मौत ही मरा है। मैं भी जहां तक हो सकेगा, छिपाने की कोशिश करूँगा।
मनोरमा--(खुश होकर) बस, अब मुझे पूरा विश्वास हो गया कि तुम मुझसे सच्चा प्रेम रखते हो।
इसके बाद दोनों में बहुत ही धीरे-धीरे कुछ बातें होने लगीं, जिन्हें गिरिजाकुमार सुन न सका। गिरिजाकुमार चोरों की तरह उस मकान में घुस गया था और छिपकर ये बातें सुन रहा था। जब मनोरमा ने कमरे का दरवाजा बन्द कर लिया, तब वह कमन्द लगाकर मकान के पीछे की तरफ उतर गया और धीरे-धीरे मनोरमा के अस्तबल में जा पहुँचा । अबकी दफे दारोगा यहाँ रथ पर सवार होकर आया था, वह रथ अस्तबल में था, घोड़े बंधे हुए थे और सारथी रथ के अन्दर सो रहा था। इससे कुछ दूर पर मनोरमा के और सब साईस तथा घसियारे वगैरह पड़े खर्राटे ले रहे थे।
बहुत होशियारी से गिरिजाकुमार ने दारोगा के सारथी को बेहोशी की दवा सुंघाकर बेहोश किया और उठाकर बाग के एक कोने में घनी झाड़ी के अन्दर छिपाकर रख आया, उसके कपड़े पहन लिए और चुपचाप रथ के अन्दर घुसकर सो रहा।
जब रात घण्टा--भर के लगभग बाकी रह गई, तब दारोगा साहब जमानिया जाने के लिए बिदा हुए और एक लौंडी ने अस्तबल में आकर रथ जोतने की आज्ञा सुनाई। नये सारथी अर्थात् गिरिजाकुमार ने रथ जोतकर तैयार किया और फाटक पर लाकर दारोगा साहब का इन्तजार करने लगा। शराब के नशे में चूर झूमते हुए एक लौंडी का हाथ थामे हुए दारोगा साहब भी आ पहुंचे। उनके रथ पर सवार होने के साथ ही रथ तेजी के साथ रवाना हुआ। सुबह की ठण्ठी हवा ने दारोगा साहब के दिमाग में खुनकी पैदा कर दी और वे रथ के अन्दर लेटकर बेखबर सो गये। गिरिजाकुमार ने जिधर चाहा, घोड़ों का मुंह फेर दिया और दारोगा साहब को लेकर रवाना हो गया। इस तौर पर उसे सूरत बदलने की भी जरूरत न पड़ी।