में जो कुछ मेहनत की है वह हम तुम दोनों ने मिल कर की है अतएव उचित है कि इस काम में जो कुछ तुमने फायदा उठाया है उसमें से आधा मुझे बाँट दो, नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा।"
मैं--ठीक है, आपका मतलब मैं समझ गया, खैर आज तो नहीं मगर कल जैसा आप कहते हैं, वैसा ही कर दूंगा।
दारोगा--आखिर एक दिन की देर करने में तुमने क्या फायदा सोचा है?
मैं--सो भी कल ही बताऊँगा।
दारोगा--अच्छा क्या हर्ज है, कल ही सही।
इतना कहकर दारोगा चला गया और मैं भूखा-प्यासा उसी कोठरी में पड़ा हुआ तरह-तरह की बातें सोचने लगा क्योंकि उस दिन दारोगा ने मेरे खाने-पीने के लिए कुछ भी प्रबन्ध न किया । मुझे निश्चय हो गया कि इस ढंग की चिट्ठी लिखाने के बाद दारोगा मुझे जान से मार डालेगा और मेरे मरने के बाद यही चिट्ठी मेरी बदनामी का सबब बनेगी। मेरे दोस्त गोपालसिंह मुझको बेईमान समझेंगे और तमाम दुनिया मुझे कमीना खयाल करेगी । अतः मैंने दिल में ठान ली कि चाहे जान जाय या रहे, मगर इस तरह की चिट्ठी मैं कदापि न लिखूगा। आखिर मरना तो जरूरी है फिर कलंक का टीका जान- बूझ कर अपने माथे क्यों लगाऊँ?
दूसरे दिन रघुबरसिंह को साथ लिए हुए दारोगा पुनः मेरे पास आया।
भरतसिंह ने अपना हाल यहां ही तक बयान किया था कि राजा गोपालसिंह ने बीच ही में टोका और पूछा, "क्या रघुबरसिंह भी इसी जयपाल का नाम है?"
भरतसिंह--जी हां, इसका नाम रघुबरसिंह था और कुछ दिन के लिए इसने अपना नाम 'भूतनाय' रख लिया था।
गोपालसिंह--ठीक है, मुझे इस बारे में धोखा हुआ नहीं, बल्कि मेरे खजांची ही ने मुझे धोखा दिया । खैर तब क्या हुआ?
भरतसिंह--हां, तो दूसरे दिन जयपाल को साथ लिए हुए दारोगा पुनः मेरे पास आया और बोला, "कहो, चिट्ठी लिख देने के लिए तैयार हो या नहीं?" इसके जवाब में मैंने कहा कि "मर जाना मंजूर है मगर झूठे कलंक का टीका अपने माथे पर लगाना मंजूर नहीं!"
दारोगा ने मुझे कई तरह से समझाया-बुझाया और धोखे में डालना चाहा, मगर मैंने उसकी एक न सुनी। आखिर दोनों ने मिलकर मुझे मारना शुरू किया, यहाँ तक मारा कि मैं वेहोश हो गया। जब होश में आया तो फिर उसी तरह अपने को कैद पाया । भूख और प्यास के मारे मेरा बुरा हाल हो गया था और मार के सबब से तमाम बदन चूर-चूर हो रहा था। तीसरे दिन दोनों शैतान पुनः मेरे पास आये और जब उस दिन भी मैंने दारोगा की बात न मानी तो उसने घोड़ों के दाना खाने वाले तोबड़े में चूरा किया हुआ मिरचा रख कर मेरे मुंह पर चढ़ा दिया। हाय-हाय ! उस तकलीफ को मैं कभी नहीं भूल सकता!
यहाँ तक कहकर भरतसिंह चुप हो गये और दारोगा तथा जयपाल को तरफ