पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१४३

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समझना चाहिए।

गोपालसिंह-तुम्हें ऐसा ही डर है तो कहो बैठे-ही-बैठे चौबीस घण्टे के अन्दर उसे गिरफ्तार कराकर तुम्हारे हवाले कर दूं?

भूतनाथ-यह मुझे विश्वास है और आप ऐसा कर सकते हैं, मगर मुझे यह मंजूर नहीं है, क्योंकि मैं जरा दूसरे ढंग से उसका मुकाबला करना चाहता हूँ। आप जरा बाप-बेटे की लड़ाई देखिए तो! हाँ, अगर वह आपकी तरफ झुके, तो जैसा मौका देखिये, कीजियेगा।

गोपालसिंह-खैर, ऐसा ही सही ! मगर तुमने क्या सोचा है, जरा अपना मन- सूबा तो सुनाओ!

इसके बाद उन लोगों में देर तक बातें होती रहीं और दो घण्टे के बाद भूतनाथ उठकर अपने डेरे की तरफ चला गया।


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नानक जब चुनारगढ़ की सरहद पर पहुंचा, तब सोचने लगा कि दुश्मनों से क्यों कर बदला लेना चाहिए। वह पांच आदमियों को अपना शिकार समझे हुए था और उन्हीं पांचों की जान लेने का विचार करता था। एक तो राजा गोपालसिंह, दूसरे इन्द्रदेव, तीसरा भूतनाथ, चौथा हरनाम सिंह और पांचवीं शान्ता । बस, ये ही पाँच उसकी आँखों में खटक रहे थे, मगर इनमें से दो अर्थात् राजा गोपालसिंह और इन्द्रदेव के पास फटकने की तो उसकी हिम्मत नहीं पड़ती थी और वह समझता था कि ये दोनों तिलिस्मी आदमी हैं, इनके काम जादू की तरह हुआ करते हैं और इनमें लोगों के दिल की बात समझ जाने की कुदरत है। मगर बाकी तीनों को वह निरा शिकार ही समझता था और विश्वास करता था कि इन तीनों को किसी न किसी तरह फंसा लेंगे। अतः चुनारगढ़ की सरहद में आ पहुँचने के बाद उसने गोपालसिंह और इन्द्रदेव का खयाल तो छोड़ दिया और भूतनाथ की स्त्री और उसके लड़के हरनामसिंह की जान लेने के फेर में पड़ा। साथ ही इसके यह भी समझ लेना चाहिए कि नानक यहाँ अकेला नहीं आया था, बल्कि समय पर मदद पहुँचाने के लायक सात-आठ आदमी और भी अपने साथ लाया था, जिसमें से चार-पाँच तो उसके शागिर्द ही थे।

दोनों कुमारों की शादी में जिस तरह दूर-दूर के मेहमान और तमाशबीन लोग आये थे, उसी तरह साधु-महात्मा तथा साधु वेषधारी पाखण्डी लोग भी बहुत से इकट्ठे हो गये थे, जिन्हें सरकार की तरफ से खाने-पीने को भरपूर मिलता था और इस लालच में पड़े हुए उन लोगों ने अभी तक चुनारगढ़ का पीछा नहीं छोड़ा था तथा तिलिस्मी मकान के चारों तरफ तथा आस-पास के जंगलों में डेरा डाले हुए पड़े थे। नानक और उसके साथी लोग भी साधुओं ही के वेष में वहाँ पहुंचे और उसी मंडली में मिल-जुलकर रहने लगे।