सिंहजी को ले गये। उनके जाने का सबब भूतनाथ को ठीक-ठीक कह दिया था। मगर साथ इसके इस बात की भी ताकीद कर दी थी कि यह हाल किसी को मालूम न होवे। इतना कहते-कहते गोपालसिंह कुछ देर के लिए रुके और फिर इस तरह कहने लगे––
"पहले तो मुझे इस बात की चिन्ता थी कि बलभद्रसिंह मेरा कहना मानेंगे या नहीं, मगर उन्होंने इस बात को बड़ी खुशी से मंजूर कर लिया। अपनी लड़कियों से मिल कर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और हम लोगों पर जो कुछ आफतें बीत चुकी थीं, उन्हें सुन-सुनाकर अफसोस करते रहे, फिर अपनी बीती सुनाकर प्रसन्नतापूर्वक हम लोगों के काम में शरीक हुए, अर्थात् हँसी-खुशी के साथ उन्होंने कमलिनी और लाड़िली का कन्यादान कर दिया।[१] इस काम में भैरोंसिंह को भी कम तरद्दुद नहीं उठाना पड़ा, बल्कि दोनों कुमार इनसे रंज भी हो गये थे, क्योंकि इनकी जुबानी असल बातों का पता उन्हें नहीं लगता था, अतः शादी हो जाने के बाद इस बात का बन्दोबस्त किया गया कि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह इस अनूठे ब्याह को भूल जायें तथा इन्द्रानी और आनन्दी से मिलने की उम्मीद न रखें।
इसके बाद राजा गोपालसिंह ने भी बहुत-सा हाल बयान किया जो हम सन्तति के अठारहवें भाग में लिख आये हैं और सब बातें सुनकर अन्त में चन्द्रकान्ता ने कहा, "खैर, जो हुआ अच्छा हुआ, हम लोगों के लिए तो जैसे किशोरी और कामिनी हैं, वैसे ही कमलिनी और लाड़िली हैं। मगर किशोरी के नाना को यदि इस बात का कुछ रंज हो तो ताज्जुब नहीं।"
वीरेन्द्रसिंह––पिताजी भी यही कहते थे। मगर इसमें कोई शक नहीं कि किशोरी ने परले सिरे की हिम्मत दिखलाई!
गोपालसिंह––साथ ही इसके यह भी समझ लीजिए कि कमलिनी ने भी इस बात को सहज ही में स्वीकार नहीं कर लिया, इसके लिए भी हम लोगों को बहुत-कुछ उद्योग करना पड़ा। बात यह है कि कमलिनी भी किशोरी को जान से ज्यादा चाहती है और मानती है।
चन्द्रकान्ता––मगर मुझे इस बात का अफसोस जरूर है कि इन दोनों की शादी में किसी तरह की तैयारी नहीं की गई और न कुछ धूमधाम ही हुई।
इसके बाद बहुत देर तक इन सभी में बातचीत होती रही।
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अब हम कुँअर इन्द्रजीतसिंह की तरफ चलते और देखते हैं कि उधर क्या हो रहा है।
- ↑ देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, अठारहवाँ भाग, बारहवाँ बयान।