छत के ऊपर एक और रास्ता उस चबूतरे में से बाहर निकलने के लिए बना हुआ है, जिसका हाल मुझे पहले मालूम न था, जिस दिन हम दोनों भाई उस चबूतरे की राह निकले हैं, उस दिन देखा कि इसके अतिरिक्त एक रास्ता और भी है।"
इन्द्रदेव--जी हाँ, दूसरा रास्ता भी जरूर है, मगर वह तिलिस्म के दारोगा के लिए बनाया गया था, तिलिस्म तोड़ने वाले के लिए नहीं। मुझे उस रास्ते का हाल बखूबी मालूम है।
गोपालसिंह--मुझे भी उस रास्ते का हाल (इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इन्हीं की जुबानी मालूम हुआ है, इसके पहले मैं कुछ भी नहीं जानता था और न ही मालूम था कि इस तिलिस्म के दारोगा यही हैं।
इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने सबको तहखाने अथवा कोठरियों और कमरों की सैर कराई, जिसमें लाजवाब और हद दर्जे की फिजूलखर्ची को मात करने वाली दौलत भरी हुई थी, और एक-से-एक बढ़कर अनूठी चीजें लोगों के दिल को अपनी तरफ खींच रही थीं। साथ ही इसके यह भी समझाया कि इन कोठरियों को हम लोगों ने कैसे खोला, और इस काम में कैसी-कैसी कठिनाइयाँ उठानी पड़ी।
घूमते-फिरते और सैर करते हुए सब कोई उस मध्य वाले कमरे में पहुंचे जो ठीक तिलिस्मी चबूतरे के नीचे था। वास्तव में यह कमरा कल-पुर्जी से बिल्कुल भरा हुआ था। जमीन से छत तक बहुत-सी तारों और कल-पुर्जी का सम्बन्ध था और दीवार के अन्दर से ऊपर चढ़ जाने के लिए सीढ़ियां दिखाई दे रही थीं।
दोनों कुमारों ने महाराज को समझाया कि तिलिस्म टूटने के पहले वे कल-पुर्जे किस ढंग पर लगे थे और तोड़ते समय उनके साथ कैसी कार्रवाई की गई। इसके बाद इन्द्रजीतसिंह सीढ़ियों की तरफ इशारा करके कहा, "अब भी इन सीढ़ियों का तिलिस्म कायम है, हर एक की मजाल नहीं कि इन पर पैर रख सके।"
वीरेन्द्रसिंह--यह सब कुछ है, मगर असल तिलिस्मी बुनियाद वही खोह वाला बंगला जान पड़ता है, जिसमें चलती-फिरती तस्वीरों का तमाशा देखा था, और जहाँ से तिलिस्म के अन्दर घुसे थे।
सुरेन्द्रसिंह–-इसमें क्या शक है। वही चुनार, जमानिया और रोहतासगढ़ वगैरह के तिलिस्मों की नकेल है, और वहाँ रहने वाला तरह-तरह के तमाशे देख-दिखा सकता है और सबसे बढ़कर आनन्द ले सकता है।
जीतसिंह--वहाँ की पूरी-पूरी कैफियत अभी देखने में नहीं आई।
इन्द्रजीतसिंह--दो-चार दिन में वहाँ की कैफियत देख भी सकते हैं । जो कुछ आप लोगों ने देखा वह रुपये में एक आना भी न था। मुझे भी अभी पुनः वहाँ जाकर बहुत-कुष्ठ देखना बाकी है।
सुरेन्द्रसिंह--इस समय तो जल्दी में थोड़ा-बहुत देख लिया है, मगर काम से निश्चिन्त होकर पुनः हम लोग वहां चलेंगे, और उसी जगह से रोहतासगढ़ के तहखाने की भी सैर करेंगे। अच्छा, अब यहाँ से बाहर होना चाहिए।
आगे-आगे कुंअर इन्द्रजीतसिंह रवाना हुए। पाँच-सात सीढ़ियाँ चढ़ जाने के बाद