पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/८९

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यह सुरंग है, उसी समय पीछे से उस औरत की यह आवाज आई, "आप दोनों भाई किसी तरह का अन्देशा न कीजिए और सीधे चले चलिए। इस सुरंग में बहुत दूर तक जाने की तकलीफ आप लोगों को न होगी!"

वास्तव में यह सुरंग बहुत बड़ी न थी, चालीस-पचास कदम से ज्यादा कुमार न गए होंगे कि सुरंग का दूसरा दरवाजा मिला और उसे लाँघकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने अपने को एक-दूसरे ही बाग में पाया जिसकी जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा मकान कमरा बारहदरियों तथा और इमारतों के काम में लगा हुआ था और थोड़े हिस्से में मामूली ढंग का एक छोटा-सा बाग था। हाँ, उस बाग के बीचोंबीच में एक छोटी-सी खूबसूरत बावली जरूर थी जिसकी चार अंगुल ऊँची सीढ़ियाँ सफेद लहरदार पत्थरों से बनी हुई थीं। इसके चारों कोनों पर कदम्ब के चार पेड़ लगे हुए थे और एक पेड़ के नीचे एक चबूतरा संगमरमर का इस लायक था कि बीस-पच्चीस आदमी खुले तौर पर बैठ सकें। इमारत का हिस्सा जो कुछ बाग में था वह सब बाहर से तो देखने में बहुत ही खूबसूरत था मगर अन्दर से वह कैसा और किस लायक था सो नहीं कह सकते।

बावली से पास पहुँचकर उस औरत ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, समय धूप बहुत तेज हो रही है मगर इस पेड़ (कदम्ब)की घनी छाया में इस संगमरमर के चबूतरे पर थोड़ी देर तक बैठने में आपको किसी तरह की तकलीफ न होगी, मैं बहुत जल्द (सामने की तरफ इशारा करके) इस कमरे को खुलवाकर आपके आराम करने का इन्तजाम करूंगी, केवल आधी घड़ी के लिए आप मुझे विदा करें।

इन्द्रजीतसिंह––खैर, जाओ मगर इतना बताती जाओ कि तुम दोनों का नाम क्या है जिसमें यदि कोई आवे और कुछ पूछे तो कह सकें कि हम लोग फलाँ लोगों के मेहमान हैं।

औरत––(हँसकर) जरूर जानना चाहिए, केवल इसलिए नहीं बल्कि कई कामों के लिए हम दोनों बहिनों का नाम जान लेना आपके लिए आवश्यक है! मेरा नाम 'इन्द्रानी' (दूसरी की तरफ इशारा करके) और इसका नाम 'आनन्दी' है। यह मेरी सगी छोटी बहिन है।

इतना कहकर वे औरतें तेजी के साथ एक तरफ चली गई और इस बात का कुछ भी इन्तजार न किया कि कुमार कुछ जवाब देंगे या और कोई बात पूछेगे। उन दोनों औरतों के चले जाने के बाद कुँअर आनन्दसिंह ने अपने भाई से कहा, "इन दोनों औरतों के नाम पर आपने कुछ ध्यान दिया?"

इन्द्रजीतसिंह––हाँ, यदि इनका नाम इनके बुजुर्गों का रखा हुआ है। और इनके शरीर का सबसे पहला साथी नहीं है तो कह सकते हैं कि हम दोनों ने धोखा खाया।

आनन्दसिंह––जी, मेरा भी यही खयाल है, मगर साथ ही इसके मैं यह भी खयाल करता हूँ कि अब हम लोगों को चालाक बनना···।

इन्द्रजीतसिंह––(जल्दी से) नहीं-नहीं, अब हम लोगों को जब तक छुटकारे की साफ सूरत दिखाई न दे जाये प्रकट में नादान बने रहना ही लाभदायक होगा।

आनन्दसिंह––निःसन्देह मगर इतना तो मेरा दिल अब भी कह रहा है कि ये