किया और कहा, "मैं किसी दुश्मन का होना अनुमान करके भागा था, मगर जब आवाज सुनी, तो पहचान कर रुक गया। मैं कल से आप दोनों भाइयों को खोज रहा हूँ, मगर पता न लगा सका क्योंकि तिलिस्मी खारखाने में बिना समझे-बूझे दखल देना उचित न जानकर अपनी बुद्धिमानी या जबर्दस्ती से किसी दरवाजे को खोल न सका और इसीलिए बाग में भी पहुँचने की नौबत न आई। कहिए, आप लोग कुशल से तो हैं!"
इन्द्रजीतसिंह––हाँ, हम लोग बहुत अच्छी तरह हैं। तुम बताओ कि यहाँ कब, कैसे, क्यों और किस तरह से आये?
नानक––कमलिनीजी से मिलने के लिए घर से निकला था, मगर जब मालूम हुआ कि वे राजा गोपालसिंह के साथ जमानिया गईं, तब मैं राजा गोपालसिंह के पास आया और उन्हीं की आज्ञानुसार यहाँ आपके पास आया हूँ।
इन्द्रजीतसिंह––किनकी आज्ञानुसार? राजा गोपालसिंह की या कमलिनी की?
नानक––कमलिनीजी की आज्ञानुसार।
नानक की बात सुनकर आनन्दसिंह ने एक भेद की निगाह इन्द्रजीतसिंह पर डाली और इन्द्रजीतसिंह ने कुछ मुस्कुराहट के साथ आनन्दसिंह की तरफ देखकर कहा––"बाग की तरफ जो दरवाजे पड़ते हैं, उन्हें खोल दो, चाँदनी हो जाये।"
आनन्दसिंह ने दरवाजे खोल दिए और फिर नानक के पास आकर पूछा, "हाँ, तो कमलिनीजी की आज्ञानुसार तुम यहाँ आए?"
नानक––जी हाँ।
आनन्दसिंह––कमलिनी को कहाँ छोड़ा?
नानक––राजा गोपालसिंह के तिलिस्मी बाग में।
इन्द्रजीतसिंह––वह अच्छी तरह से तो हैं न?
नानक––जी हाँ, बहुत अच्छी तरह से हैं।
आनन्दसिंह––घोड़े पर से गिरने के कारण उनकी टाँग जो टूट गई थी, वह अच्छी
नानक––यह खबर आपको कैसे मालूम हुई?
आनन्दसिंह––अजी वाह, मेरे सामने ही तो घोड़े पर से गिरी थीं, भैरोंसिंह ने उनका इलाज किया, अच्छी हो गई थीं, मगर कुछ दर्द बाकी था, जब मैं इधर चला आया।
नानक––जी हाँ, अब तो वह बहुत अच्छी हैं।
आनन्दसिंह––(हँस कर) अच्छा, यह तो बताओ कि तुम किस रास्ते से यहाँ आये हो?
नानक––उसी बुर्ज वाले रास्ते से आया हूँ।
आनन्दसिंह––मुझे अपने साथ ले चलकर वह रास्ता बता तो दो।
नानक––बहुत अच्छा, चलिए मैं बता देता हूँ, मगर मुझसे कमलिनीजी ने कहा था कि जब तुम बाग में जाओगे, तो लौटने का रास्ता बन्द हो जाएगा।
आनन्दसिंह––यह तो उन्होंने ठीक कहा था। हम दोनों भाइयों को भी उन्होंने