जोर अभी तक वैसा ही था, मगर लीला ने इसे अच्छी तरह सह लिया और कनात के नीचे से झाँककर खेमे के अन्दर देखा तो सभी को बेहोश पाया।
पाठकों को यह मालूम है कि लीला ऐयारी भी जानती थी। कनात काटकर वह खेमे के अन्दर चली गई। आदमी बहुत ज्यादा भरे हुए थे, इसलिए उसे मायारानी के पास तक पहुँचने में बड़ी कठिनाई हुई। आखिर वह उसके पास पहुँची और हाथ-पैर खोलने के बाद लखलखा सुंघाकर होश में लाई। मायारानी ने होश में आकर लीला को देखा और धीरे से कहा, "शाबाश, खूब पहुँची। बस, दारोगा को छुड़ाने की कोई जरूरत नहीं।" इतना कहकर मायारानी उठ खड़ी हुई और लीला के हाथ का सहारा लेती हुई खेमे के बाहर निकल गयी।
लीला ने चाहा कि लश्कर में से दो घोड़े भी सवारी के लिए चुरा लावे मगर मायारानी ने स्वीकार न किया और उसी तूफान में दोनों कम्बख्तों ने एक तरफ का रास्ता लिया।
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पाठकों को मालूम है कि शिवदत्त और कल्याणसिंह ने जब रोहतासगढ़ पर चढ़ाई की थी तब उनके साथ मनोरमा और माधवी मौजूद थीं। भूतनाथ और सरयूसिंह ने शिवदत्त और कल्याणसिंह को डरा-धमकाकर मनोरमा को तो गिरफ्तार कर लिया[१] परन्तु माधवी कहाँ गई या क्या हुई, इसका हाल कुछ लिखा नहीं गया, अस्तु अब हम थोड़ा-सा हाल माधवी का लिखना उचित समझते हैं।
जिस जमाने में माधवी गया और राजगृह की रानी कहलाती थी, उस जमाने उसका राज्य केवल तीन आदमियों के भरोसे पर चलता था। एक दीवान अग्निदत्त, दूसरा कोतवाल धरमसिंह और तीसरा सेनापति कुबेरसिंह। बस यही तीनों उसके राज्य का आनन्द लेते थे और इन्हीं तीनों का माधवी को भरोसा था। यद्यपि ये तीनों ही माधवी की चाह में डूबने वाले थे मगर कुबेरसिंह और धरमसिंह प्यासे ही रह गये जिसका उन दोनों को बराबर बहुत ही रंज बना रहा।
जब राजगृह और गया की किस्मत ने पलटा खाया, तब धर्मसिंह कोतवाल को तो चपला ने माधवी की सूरत बना और धोखा दे गिरफ्तार कर लिया, और दीवान अग्निदत्त बहुत दिनों तक बचा रह कर अन्त में किशोरी के कारण एक खोह के अन्दर मारा गया, परन्तु अभी तक यह न मालूम हुआ कि उसके मर जाने का सबब क्या था। हाँ सेनापति कुबेरसिंह जिसने माधवी के राज्य में सबसे ज्यादा दौलत पैदा की थी, रह गया क्योंकि उसने जमाने को पलटा खाते देख चुपचाप अपने घर (मुर्शिदाबाद) का रास्ता लिया मगर माधवी के हाल-चाल की खबर लेता रहा, क्योंकि यद्यपि उसने माधवी
- ↑ देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति, चौदहवां भाग, दुसरा बयान।