में मैं तुम्हें अच्छी तरह खुश कर दूँगा।
जमादार––कोई चिन्ता नहीं मैं अपने सिपाहियों को हुक्म दे दूँगा कि चार में से एक आदमी सिर्फ आपके दरवाजे पर और तीन आदमी तमाम सराय में घूम-घूमकर पहरा दिया करें।
जौहरी––बस-बस, इतने ही से मैं बेफिक्र हो जाऊँगा। अपने सिपाहियों को यह भी ताकीद कर देना कि मेरे सिपाहियों को सोने न दें! यद्यपि मैं भी अपने आदमियों को जागने के लिए सख्त ताकीद कर दूँगा, मगर वे कई दिन के जागे हुए हैं, नींद आ जाय तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है। हाँ, एक तरकीब मुझे और मालूम है जो इससे भी सहज में हो सकती है। अर्थात् तुम स्वयं अकेले भी यदि यहाँ अपने सोने का बन्दोबस्त रखोगे तो तमाम रात यहाँ अमन-चैन बना रहेगा, पहरा बदलने के समय···
जमादार––मैं आपका मतलब समझ गया, मगर नहीं, ऐसा करने से मेरी बदनामी हो जायगी, मुझे हरदम फाटक पर मौजूद ही रहना चाहिए, क्योंकि रात भर में पचासों दफे लोग फाटक पर मेरे पास तरह-तरह की फरियाद करने आया करते हैं। खैर, आप इस बारे में चिन्ता न कीजिए, मैं आपके माल-असबाब की निगहबानी का पूरा इन्तजाम कर दूँगा, अगर आपका कुछ नुकसान हो तो मेरा जिम्मा।
कुछ और बातचीत करने के बाद जमादार अपने स्थान पर चला गया और थोड़ी देर बाद प्रतिज्ञानुसार उसने पहरे का बन्दोबस्त भी कर दिया।
पाठक, यह सौदागर महाराज हमारे उपन्यास का कोई नवीन पात्र नहीं है, बल्कि बहुत प्राचीन पात्र तारासिंह है जो नानक की चालचलन का पता लगाके चुनारगढ़ लौट जा रहा है। इसे इस बात का विश्वास हो गया कि नानक मेरा पीछा करेगा और ऐयारी के कायदे को छप्पर पर रख के जहाँ तक हो सकेगा, मुझे नुकसान पहुँचाने की कोशिश करेगा, इसलिए वह इस ढंग से सफर कर रहा है। हकीकत में तारासिंह का खयाल बहुत ठीक था। नानक, तारासिंह को नुकसान पहुँचाने, बल्कि जान से मार डालने की कसम खा चुका था। केवल इतना ही नहीं, बल्कि वह अपने बाप का तथा राजा वीरेन्द्रसिंह का भी विपक्षी बन गया था, क्योंकि अब उसे किसी तरफ से किसी तरह की उम्मीद न रही थी। अब वह (नानक) भी अपने शागिर्दो को साथ लिए हुए तारासिंह के पीछे-पीछे सफर कर रहा है और आज उसका भी डेरा इसी सराय में पड़ा है क्योंकि पहले ही से पता लगाए रहने के कारण वह तारासिंह की पूरी खबर रखता है और जानता है कि तारासिंह सौदागर बनकर इसी सराय में उतरा हुआ है। नानक यद्यपि तारासिंह को फँसाने का उद्योग कर रहा है, मगर उसे इस बात की खबर कुछ भी नहीं है कि तारासिंह भी मेरी तरफ से गाफिल नहीं है और उसे मेरा रत्ती-रत्ती हाल मालूम है। अब देखना चाहिए, कि किसकी चालाकी कहाँ तक चलती है।
रात आधी से ज्यादा जा चुकी है। सराय के अन्दर बिल्कुल सन्नाटा तो नहीं है, मगर पहरा देने वालों के अतिरिक्त बहुत कम आदमी ऐसे हैं जिन्हें अपनी कोठरी के बाहर की खबर हो। सराय का बड़ा फाटक बन्द है, पहरे के सिपाहियों में से एक तो तारासिंह (सौदागर) के दरवाजे पर टहल रहा है और बाकी के तीन घूम-घूमकर इस