"अब तू अपने को किसी तरह नहीं बचा सकता।"
निःसन्देह वह तिलिस्मी खंजर था जिसकी चमक से उस कमरे में दिन की तरह उजाला हो गया। मगर पीले नकाबपोश ने भी उसका जवाब तिलिस्मी खंजर ही से दिया क्योंकि उसके पास भी तिलिस्मी खंजर मौजूद था। तिलिस्मी खंजरों से लड़ाई अभी पूरी तौर से होने भी न पाई थी कि एक तरफ से आवाज आई, "पीले मरकंद, लेना जाने न पावे! अब मुझे मालूम हो गया कि भैरोंसिंह के तिलिस्मी खंजर और बटुए का चोर यही है, देखो इसकी कमर से वह बटुआ लटक रहा है! अगर तुम इस बटुए के मालिक बन जाओगे तो फिर इस दुनिया में तुम्हारा मुकाबला करने वाला कोई भी न रहेगा क्योंकि यह तुम्हारे ही ऐसे ऐयारों के पास रहने योग्य है!"
यह एक ऐसी बात थी जिसने सबसे ज्यादा भैरोंसिंह को चौंका ही नहीं दिया बल्कि बेचैन कर दिया। उसने कुँअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, "बस आप कृपा करके अपना तिलिस्मी खंजर मुझे दीजिए, मैं स्वयं इसके पास जाकर अपनी चीज ले लूँगा, क्योंकि यहां पर तिलिस्मी खंजर के बिना काम न चलेगा और यह मौका भी हाथ से गंवा देने के लायक नहीं है।
इन्द्रजीतसिंह––हाँ, बेशक ऐसा ही है, अच्छा चलो, मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।
आनन्दसिंह––और मैं?
इन्द्रजीतसिंह––तुम इसी जगह खड़े रहो, दोनों भाइयों का एक साथ वहाँ चलना ठीक नहीं, अकेला मैं ही उन दोनों के लिए काफी हूँ।
आनन्दसिंह––फिर भैरोंसिंह जाकर क्या करेंगे? तिलिस्मी खंजर की चमक में इनकी आँख खुली नहीं रह सकती।
इन्द्रजीतसिंह––सो तो ठीक है।
भैरोंसिंह––अजी, आप इस समय ज्यादा सोच-विचार न कीजिए! आप अपना खंजर मुझे दीजिये, बस मैं निपट लूँगा।
इन्द्रजीत ने खंजर जमीन पर रख दिया और उसके जोड़ की अंगूठी भैरोंसिंह की उँगली में पहना देने के बाद खंजर उठा लेने के लिए कहा। भैरोंसिंह ने तिलिस्मी खंजर उठा लिया और उस छोटे दरवाजे के अन्दर जाकर बोला, "मैं भैरोंसिंह स्वयं आ पहुँचा!"
भैरोंसिंह के अन्दर जाते ही दरवाजा आप-से-आप बन्द हो गया और दोनों कुमार ताज्जुब से एक-दूसरे की तरफ देखने लगे।