कौन बैठा है! कुछ पहचान सकते हो?
आनन्दसिंह––यद्यपि पोशाक में बहुत बड़ा फर्क है मगर सूरत भैरोंसिंह की सी मालूम पड़ती है!
इन्द्रजीतसिंह––मेरा भी यही खयाल है, आओ, उसके पास चलकर देखें।
आनन्दसिंह––चलिये।
इस बाग के बीचोंबीच में एक कदम का बहुत बड़ा पेड़ था जिसके नीचे एक आदमी गाल पर हाथ रक्खे बैठा हुआ कुछ सोच रहा था। उसी को देखकर दोनों कुमार चौंके थे और उस पर भैरोंसिंह के होने का शक हुआ था। जब दोनों भाई उसके पास पहुँचे तो शक जाता रहा और अच्छी तरह पहचान कर इन्द्रजीतसिंह ने पुकारा और कहा, "क्यों यार भैरोंसिंह, तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे?"
उस आदमी ने सिर उठाकर ताज्जुब से दोनों कुमारों की तरफ देखा और तब हलकी आवाज में जवाब दिया, "तुम दोनों कौन हो? मैं तो सात वर्ष से यहाँ रहता हूँ मगर आज तक किसी ने भी मुझसे यह न पूछा कि तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे?"
आनन्दसिंह––कुछ पागल तो नहीं हो गये हो?
इन्द्रजीतसिंह––क्योंकि तिलिस्म की हवा बड़े-बड़े चालाकों और ऐयारों को पागल बना देती है!
भैरोंसिंह––(शायद वह भैरोंसिंह ही हो) कदाचित् ऐसा ही हो मगर मुझे आज तक किसी ने यह भी नहीं कहा कि तू पागल हो गया है! मेरी स्त्री भी यहाँ रहती है, वह भी मुझे बुद्धिमान ही समझती है।
आनन्दसिंह––(मुस्कुरा कर) स्त्री कहाँ है? उसे मेरे सामने बुलाओ, मैं उससे पूछूँगा कि वह तुम्हें पागल समझती है या नहीं।
भैरोंसिंह––वाह-वाह, तुम्हारे कहने से मैं अपनी स्त्री को तुम्हारे सामने बुला लूँ! कहीं तुम उस पर आशिक हो जाओ या फिर वही तुम पर मोहित हो जाय तो फिर क्या होगा?
इन्द्रजीतसिंह––(हँसकर) वह भले ही मुझ पर आशिक हो जाय मगर मैं वादा करता हूँ कि उस पर मोहित न होऊँगा।
भैरोंसिंह––सम्भव है कि मैं तुम्हारी बातों पर मैं विश्वास कर लूँ मगर उसकी नौजवानी मुझे उस पर विश्वास नहीं करने देती। अच्छा ठहरो, मैं उसे बुलाता हूँ। अरी ए री मेरी नौजवान स्त्री भोली ई...ई...ई...!
एक तरफ से आवाज आई, "मैं आप ही चली आ रही हूँ, तुम क्यों चिल्ला रहे हो? कम्बख्त को जब देखो 'भोली-भोली' करके चिल्लाया करता है!"
भैरोंसिंह––देखो कम्बख्त को! साठ घड़ी में एक पल भी सीधी तरह से बात नहीं करती। खैर, नौजवान औरतें ऐसी हुआ ही करती हैं!
इतने में दोनों कुमारों ने देखा कि बाईं तरफ से एक नव्वै वर्ष की बुढ़िया छड़ी टेकती धीरे-धीरे चली आ रही है जिसे देखते ही भैरोंसिंह उठा और यह कहता हुआ उसकी तरफ बढ़ा, "आओ मेरी प्यारी भोली, तुम्हारी नौजवानी तुम्हें अकड़ कर चलने