उस खास निशान को देख कर भी कह सकते हो कि वह चिट्ठी गोपाल भाई की नहीं थी जो मुझे उस मकान में कमरे के अन्दर मिली थी?
आनन्दसिंह––जी नहीं, यह तो मैं कदापि नहीं कह सकता कि वह चिट्ठी किसी दूसरे की लिखी हुई थी, मगर यह खयाल भी मेरे दिल से दूर नहीं हो सकता कि उन्हीं (गोपालसिंह) की आज्ञा से आपको बुलाने गया था।
इन्द्रजीतसिंह––हो सकता है, तो क्या उन्होंने हम लोगों के साथ चालाकी की?
आनन्दसिंह––जो हो।
इन्द्रजीतसिंह––यदि ऐसा ही है तो उनकी लिखावट पर भरोसा करके यही हम कैसे कह सकते हैं कि किशोरी, कामिनी इत्यादि इस बाग में पहुँच गई थीं।
आनन्दसिंह––क्या यह हो सकता है कि वह तिलिस्मी किताब जो गोपाल भाई के पास थी हमारे किसी दुश्मन के हाथ लग गई और वह उस किताब की मदद से अपने साथियों सहित यहाँ पहुँच कर हम लोगों को नुकसान पहुँचाने की नीयत से तिलिस्म के अन्दर चला गया है?
इन्द्रजीतसिंह––यह तो हो सकता है कि उनकी किताब किसी दुश्मन ने चुरा ली हो, मगर यह नहीं हो सकता कि उसका मतलब भी हर कोई समझ ले। खुद मैं ही 'रिक्तगन्थ' का मतलब ठीक-ठीक नहीं समझ सकता था, आखिर जब उन्होंने बताया तब कहीं तिलिस्म के अन्दर जाने लायक हुआ। (कुछ रुककर) आज के मामले तो कुछ अजब बेढंगे दिखाई दे रहे हैं खैर कोई चिन्ता नहीं, आखिर हम लोगों को इस दरवाजे की राह तिलिस्म के अन्दर जाना ही है, चलो फिर जो कुछ होगा देखा जायगा!
आनन्दसिंह––यद्यपि सूर्योदय हो जाने के कारण प्रातः-कृत्य से छुट्टी पा लेना आवश्यक जान पड़ता है यह सोच कर कि क्या जाने कैसा मौका आ पड़े तथापि आज्ञानुसार तिलिस्म के अन्दर चलने के लिए मैं तैयार हूँ, चलिए।
आनन्दसिंह की बात सुन कर इन्द्रजीतसिंह कुछ गौर में पड़ गए और कुछ सोचने के बाद बोले, "कोई चिन्ता नहीं, जो कुछ होगा देखा जायगा।"
दीवार के नीचे जो जमीन खुदी हुई थी, उसकी लम्बाई-चौड़ाई चार-पाँच गज से ज्यादा न थी। मिट्टी हट जाने के कारण एक पत्थर की पटिया (ताज्जुब नहीं कि वह लोहे या पीतल की हो) दिखाई दे रही थी और उसे उठाने के लिए बीच में लोहे की कड़ी लगी हुई थी जिसका एक सिरा दीवार के साथ सटा हुआ था। इन्द्रजीतसिंह ने कड़ी में हाथ डाल कर जोर किया और उस पटिया (छोटी चट्टान) को उठा कर किनारे पर रख दिया। नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई दी और दोनों भाई सरयू को साथ लिए नीचे उतर गए।
लगभग बीस सीढ़ी के नीचे उतर जाने के बाद एक छोटी कोठरी मिली जिसकी जमीन किसी धातु की बनी हुई थी और खूब चमक रही थी। ऊपर दो-तीन सूराख (छेद) भी इस ढंग से बने हुए थे जिससे दिन-भर उस कोठरी में कुछ-कुछ रोशनी रह सकती थी। आनन्दसिंह ने चारों तरफ गौर से देखकर इन्द्रजीतसिंह से कहा, "भैया, रिक्तगंथ में लिखा था कि यह कोठरी तुम्हें तिलिस्म के अन्दर पहुँचावेगी। मगर समझ में