पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/४१

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थे मगर सब बन्द थे और सामने की तरफ एक बड़ा-सा खुला हुआ दरवाजा था। कुमार उस खुले हुए दरवाजे में चले गये और झाँककर देखने लगे। एक छोटा-सा नजर बाग दिखाई दिया जिसके चारों तरफ ऊँची-ऊँची इमारतें और बीच में एक छोटी-सी बावली थी। बाग में दो बीघे से ज्यादा जमीन न थी और फूल-पत्तों के पेड़ भी कम थे। बावली के पूरब तरफ एक आदमी हाथ में मशाल लिए खड़ा था और उस मशाल में से बिजली की तरह बहुत ही तेज रोशनी निकल रही थी। वह रोशनी एकदम स्थिर थी अर्थात् हवा लगने से हिलती न थी और उस एक ही रोशनी से तमाम बाग में ऐसा उजाला हो रहा था कि वहाँ का एक-एक पत्ता साफ-साफ दिखाई दे रहा था। कुँअर इन्द्रजीत ने बड़े गौर से उस आदमी को देखा जिसके हाथ में मशाल थी और उनको निश्चय हो गया कि यह आदमी असली नहीं है बनावटी है। अस्तु ताज्जुब से कुछ देर तक वे उसकी तरफ देखते रहे, इसी बीच में बाग के उत्तर वाले दालान में से एक आदमी निकलकर बावली की तरफ आता हुआ दिखाई पड़ा और कुमार ने उसे देखते ही पहचान लिया कि यह राजा गोपालसिंह हैं। कुमार ने उन्हें पुकारने का इरादा किया ही था कि उसी दालान में से और चार आदमी आते हुए दिखाई दिए और इनकी सूरत-शक्ल भी पहले आदमी के समान ही थी अर्थात् ये चारों भी राजा गोपाल सिंह ही मालूम पड़ते थे जिससे कुँअर इन्द्रजीतसिंह को बहुत आश्चर्य हुआ और वे बड़े गौर से इनकी तरफ देखने लगे।

वे चारों आदमी जो पीछे आये थे खाली हाथ न थे बल्कि दो आदमियों की लाशें उठाए हुए थे। धीरे-धीरे चलकर वे चारों आदमी उस बनावटी मूरत के पास पहुँचे जिसके हाथ में मशाल थी, वे दोनों लाशें उसी के पास जमीन पर रख दी और तब पाँचों गोपालसिंह मिलकर बड़े धीरे-धीरे कुछ बातें करने लगे जिसे कुँअर इन्द्रजीतसिंह किसी तरह सुन नहीं सकते थे।

पहले आदमी को देखकर और गोपालसिंह समझकर कुमार ने आवाज देना चाहा था मगर जब और भी चार गोपालसिंह निकल आए तब उन्हें ताज्जुब मालूम हुआ और यह समझकर कि कदाचित इन पाँचों में से एक भी गोपालसिंह न हो, वे चुप रह गये। उन पाँचों गोपालसिंह की पोशाकें एक ही रंग-ढंग की थीं, बल्कि उन दोनों लाशों की पोशाक भी ठीक उन्हीं की तरह थी। यद्यपि उन लाशों का सिर कटा हुआ और वहाँ मौजूद न था मगर उन पाँचों गोपालसिंह की तरफ खयाल करके देखने वाला उन लाशों को भी गोपालसिंह बता सकता था।

कुमार को चाहे इस बात का खयाल हो गया हो कि इन सभी में से कोई भी असली गोपालसिंह न होंगे मगर फिर भी वे उन सभी को बड़े ताज्जुब और गौर की निगाह से देखते हुए सोच रहे थे कि कि इतने गोपालसिंह बनने की क्या जरूरत पड़ी और उन दोनों लाशों के साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया गया या किसने किया!

जिस दरवाजे में कुँअर इन्द्रजीत सिंह खड़े थे उसी के आगे बाईं तरफ घूमती हुई छोटी सीढ़ियाँ नीचे उतर जाने के लिए थीं। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने कुछ सोच-विचार कर चाहा कि इन सीढ़ियों की राह नीचे उतरकर पाँचों गोपालसिंह के पास जायँ और उन्हें जबर्दस्ती रोककर असल बात का पता लगावें मगर इसके पहले किसी के आने की