पिया और इसके बाद सरयू को भी खाने के लिए कह के उसी ठिकाने चले गये जहाँ हौज और दरवाजे का निशान पाया था। हौज में मिट्टी भरी हुई थी जिसे दोनों भाइयों ने खंजर से खोद-खोद के निकालना शुरू किया और थोड़ी देर में सरयू भी उनके पास पहुँच कर मिट्टी फेंकने में मदद करने लगी। संध्या हो जाने पर इन सभी ने उस काम से हाथ खींचा और नहर के किनारे जाकर आराम किया। उस हौज की सफाई में इन लोगों को चार दिन लग गये, पाँचवें दिन दोपहर होते-होते वह हौज साफ हुआ और मालूम होने लगा कि यह वास्तव में एक फव्वारा। वह हौज बढ़िया संगमरमर का बन हुआ था और फव्वारा सोने का। अब दोनों कुमारों ने खंजर के सहारे उस हौज की जमीन का पत्थर उखाड़ना शुरू किया और जब दो-तीन दिन की मेहनत में सब पत्थर उखड़ गये तब वह फव्वारा भी सहज ही में निकल गया और उसके नीचे एक दरवाजे का निशान दिखाई दिया। दरवाजे में पल्ला हटाने के लिए कड़ी एक लगी हुई थी और जिस जगह ताला लगा हुआ था। उसके मुँह पर लोहे की एक पतली चादर रखी हुई थी जिसे कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने हटा दिया और उसी तिलिस्मी ताली से ताला खोला जो पुतली के हाथ से उन्हें मिली थी।
दरवाजा हटाने पर नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई पड़ी। आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर रोशनी करते हुए नीचे उतरे और उनके पीछे-पीछे इन्द्रजीतसिंह और सरयू भी गये। नीचे पहुँचकर उन्होंने अपने को एक छोटी-सी कोठरी में पाया जिसके बीचोंबीच में एक हौज बना हुआ था। उस हौज के चारों तरफ वाली दीवार कई तरह की धातुओं से बनी हुई थी और हौज के बीच में किसी तरह की राख भरी हुई थी। कोठरी के चारों तरफ की दीवारों में से ताँबे की बहुत-सी तारें आई थीं और वे सब एक साथ होकर उसी हौज के बीच में चली गई थीं। इन्द्रजीतसिंह ने सरयू से कहा, "जब ये सब तारें काट दी जायेंगी, तब बाग के चारों तरफ की दीवार करामात से खाली हो जायगी अर्थात् उसमें यह गुण न रहेगा कि उसके छूने से किसी को किसी तरह की तकलीफ हो, इसके बाद हम लोग उस दीवार वाले दरवाजे को साफ करके रास्ता निकालेंगे और इस बाग से निकलकर किसी दूसरी ही जगह जायेंगे। अस्तु तुम यहाँ से निकलकर ऊपर चली जाओ तब हम लोग तार काटने में हाथ लगावें।"
इन्द्रजीतसिंह की आज्ञानुसार सरयू उस कोठरी से बाहर निकल गई और तीनों कुमारों ने तिलिस्मी खंजर से शीघ्र ही उन तारों को काट डाला और बाहर निकल आये, दरवाजा पहले की तरह बन्द कर दिया और ऊपर से मिट्टी डाल दी। फिर नहर के किनारे आकर तीनों आदमी बैठ गये और बातचीत करने लगे।
सरयू––अब दीवार छूने से किसी तरह की तकलीफ नहीं नहीं सकती?
इन्द्रजीतसिंह––अभी नहीं। धीरे-धीरे दो पहर में उसका गुण जायगा और तब तक हम लोगों को व्यर्थ बैठे रहना पड़ेगा।
आनन्दसिंह––तब तक (सरयू की तरफ बताकर) इनका बचा हुआ किस्सा सुन लिया जाता तो अच्छा होता।
इन्द्रजीतसिंह––नहीं, अब इनका किस्सा पिताजी के सामने सुनेंगे।