भीमसेन––इससे बढ़कर और कोई तरकीब फतेह पाने के लिए हो ही नहीं सकती!
कुबेरसिंह––और ऐसा करने में कोई टण्टा भी नहीं है।
लीला––बस, अब इसी राय को पक्की रखिए।
इसके बाद फिर सभी में बातचीत और राय होती रही यहाँ तक कि सवेरा हो या। मायारानी, माधवी, भीमसेन और कुबेरसिंह ने सूरतें बदल ली और लीला भी रामदीन बन बैठी। भीमसेन के चारों ऐयारों को सुरंग का पता-ठिकाना अच्छी तरह बता दिया गया और कह दिया गया कि उसी ठिकाने सुरंग के मुहाने पर फौजी सिपाहियों को लेकर इन्तजार करना, इसके बाद मायारानी, माधवी, भीमसेन, कुबेरसिंह और लीला ने घोड़ों पर सवार होकर जमानिया का रास्ता लिया।
6
दिन दो पहर से कुछ ज्यादा ढल चुका था जब जमानिया में दीवान साहब को रामदीन के आने की इत्तिला मिली। दीवान साहब ने रामदीन को अपने पास बुलाया और उसने दीवान साहब के सामने पहुँचकर गोपालसिंह की चिट्ठी उनके हाथ में दी तथा जब वे चिट्ठी पढ़ चुके तो अँगूठी भी दिखाई। दीवान साहब ने नकली रामदीन से कहा, "महाराज का हुक्म हम लोगों के सिर आँखों पर, तुम अँगूठी को पहन लो और हम लोगों को अपने हुक्म का पाबन्द समझो! सवारी और सवारों का इन्तजाम दो घड़ी के अन्दर हो जायेगा। तुम यहां रहोगे या सवारों के साथ जाओगे?" रामदीन ने कहा, "मैं सवारों के साथ ही राजा साहब के पास जाऊँगा मगर इस समय चार आदमियों को खास बाग के अन्दर पहुँचाकर उनके खाने-पीने का इन्तजाम कर देना है जैसा कि हमारे राजा साहब का हुक्म है।"
दीवान––(ताज्जुब से) खास बाग के अन्दर?
रामदीन––जी, हाँ।
दीवान--और वे चारों आदमी हैं कहाँ पर?
रामदीन––उन्हें मैं बाहर छोड़ आया हूँ।
दीवान––(कुछ सोचकर) खैर, जो कुछ राजा साहब ने हुक्म दिया हो या जो तुम्हारे जी में आवे वह करो। अब हम लोगों को तो रोकने-टोकने का अधिकार ही नहीं रहा।
रामदीन सलाम करके उठ खड़ा हुआ और अपने चारों साथियों को लेकर तिलिस्मी बाग के अन्दर चला गया जहाँ इस समय बिल्कुल ही सन्नाटा था। अँगूठी के खयाल से उसे किसी ने भी नहीं रोका और मायारानी बे-खटके अपने ठिकाने पहुच गई तथा लुकने-छिपने और दरवाजों को बन्द करने लगी। अब हम रामदीन के साथ राजा गोपालसिंह की तरफ रवाना होते हैं और देखते