आनन्दसिंह––बेशक यही बात है, इस जगह के 'ब्रह्म-मण्डल' होने में कुछ भी सन्देह नहीं हो सकता।
इन्द्रजीतसिंह––फिर अब तुम्हारी क्या राय है? इस समय यहाँ कुछ काम किया जाय या नहीं? क्योंकि इस काम को हम लोग अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं।
आनन्दसिंह––मेरी राय में तो इस समय यहाँ कोई काम न करना चाहिए, क्यों कि (कैदियों की तरफ इशारा करके) इन लोगों को तकलीफ होगी, पहले इन लोगों को तिलिस्म के बाहर कर देना उचित होगा, फिर हम लोग यहाँ आकर अपना काम किया करेंगे।
इन्द्रजीतसिंह––मैं भी यही उचित समझता हूँ, इसके अतिरिक्त हम लोगों को यहाँ कई दफे आने की जरूरत पड़ेगी, अतः इस समय अगर यहाँ अटक कर कोई काम करेंगे तो बाहर निकलने में बहुत देर हो जायेगी और हम भी परेशान और दुःखी हो जायेंगे।
इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह आगे की तरफ बढ़े और सभी को लिए सामने वाली सुरंग में घुसे। अबकी दफे दोनों कुमारों और कैदियों को बहुत ज्यादा चलना पड़ा और साथ ही इसके भूख-प्यास की भी तकलीफ उठानी पड़ी। कई कोस का सफर करने के बाद जब वे लोग सुरंग के बाहर निकले, तो सुबह की सफेदी आसमान पर फैल चुकी थी, इसलिए दोनों कुमारों ने अन्दाज से समझा कि अबकी दफे हम लोग चौदह या पन्द्रह घंटे तक बराबर चलते रहे और जमानिया को बहुत दूर छोड़ आये।
सुरंग के बाहर निकलकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने जिस सरजमीन पर अपने को पाया वह बहुत ही दिलचस्प और सुहावनी घाटी थी। चारों तरफ कम ऊँची, सुन्दर और हरी-भरी पहाड़ियों के बीच में सरसब्ज मैदान था, जिसके बीच में बरसाती पानी से बचने के लिए एक स्थान भी बना हुआ था। इस सरजमीन को इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिह ने बहुत ही पसन्द किया और इन्द्रजीतसिंह ने उन कैदियों की तरफ देखकर कहा, "अब तुम लोग अपने को आजाद और तिलिस्मी कैदखाने से बाहर निकला हुआ समझो, थोड़ी देर में हम लोग तुम्हें इस घाटी से बाहर पहुँचा देंगे फिर जहाँ तुम लोगों की इच्छा हो, चले जाना।"
इसके जवाब में इन कैदियों ने हाथ जोड़कर कहा––"अब हम लोग इन चरणों को छोड़ नहीं सकते! यद्यपि अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिए हम लोग बेताब हो रहे हैं परन्तु हमारी यह अभिलाषा भी आपकी कृपा के बिना पूरी नहीं हो सकती, अतः हम लोग आपके साथ-ही-साथ राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में चलने की इच्छा रखते हैं।"
दोनों कुमारों ने उनकी प्रार्थना मंजूर कर ली और इसके बाद जो कुछ अनूठी कार्रवाई उन लोगों ने की, दूसरे दिन बयान करूँगा।
इतना कहकर नकाबपोश चुप हो गया और अपने घर जाने की इच्छा से राजा साहब का मुँह देखने लगा। यद्यपि महाराज इसके आगे भी इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल सुनना चाहते थे, परन्तु इस समय नकाबपोशों को छुट्टी दे देना ही उचित जान कर घर जाने की इजाजत दे दी और दरबार बर्खास्त किया।