पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/२१८

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वहाँ शेर और चबूतरे का नाम-निशान भी न पाया, हाँ, उसके बदले में उस जगह एक गड़हा देखा जिसमें उतरने के लिए छ:-सात सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। कैदियों को भी साथ लिए और तिलिस्मी खंजर की रोशनी किए हुए दोनों कुमार इस सुरंग में घुसे और लगभग पचास कदम जाने के बाद पुनः एक कमरे में पहुँचे। यह कमरा भी पहले कमरे के बराबर था और इसके सामने की दीवार में पुनः आगे जाने के लिए एक सुरंग का मुहाना नजर आ रहा था अर्थात् इस कमरे को लाँघ कर पुनः आगे बढ़ जाने के लिए भी सामने की तरफ सुरंग दिखाई दे रही थी।

यह कमरा पहले की तरह खाली या सुनसान न था। इसमें तरह-तरह की बेशकीमत चीजों––हब, जवाहिरात और अशफियों––के जगह-जगह ढेर लगे हुए थे जिन्हें देखकर उन पाँचों कैदियों में से एक ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह से पूछा, "यह इतनी बड़ी रकम यहाँ किसके लिए रखी हुई है?"

इन्द्रजीतसिंह––यह सब दौलत हमारे लिए रखी हुई है, केवल इतनी ही नहीं, बल्कि इसी तरह और भी कई जगह इससे भी बढ़कर अच्छी-अच्छी और कीमती चीजें दिखाई देंगी।

कैदी––इन चीजों को आप क्योंकर बाहर निकालेंगे?

इन्द्रजीतसिंह––जब हम लोग तिलिस्म तोड़ते हुए चुनारगढ़ पहुँचेंगे, तब ये सब चीजें निकलवा ली जायेंगी।

कैदी––तब तक इसी तरह ज्यों-की-त्यों पड़ी रहेंगी?

इन्द्रजीतसिंह––हाँ।

इस कमरे में चारों तरफ की दीवारों के साथ तरह-तरह के बेशकीमत हर्बे लटक रहे थे, जिन पर इस खयाल से कि जंग इत्यादि लगकर खराब न हो जायें, का मोमी रोगन लगाया हुआ था। नीचे दो सन्दूक जड़ाऊ जेवरों से भरे हुए थे, जिनमें ताले लगे हुए न थे। इसके अतिरिक्त सोने के बहुत से जड़ाऊ खुशनुमा और नाजुक बर्तन भी दिखाई दे रहे थे।

इन चीजों को देख-भाल कर कुमार आगे बढ़े और सुरंग के दूसरे मुहाने में घुस कर दूर तक चले गये। अबकी दफे का सफर सीधा न था बल्कि घूमघुमौवा था। लगभग डेढ़ या दो कोस जाने के बाद पुनः एक कमरे में पहुँचे। पहले कमरे की तरह इसमें भी आमने-सामने दोनों तरफ सुरंगें बनी हुई थीं।

इस कमरे में सोने-चाँदी या जवाहरात की कोई चीज न थी, हाँ, दीवारों पर बड़ी-बड़ी तस्वीरें लटक रही थी, जो एक किस्म के रोगनी कपड़े पर जिस पर सर्दी-गर्मी का असर नहीं पहुँच सकता था बनी हुई थीं। इन तस्वीरों में रोहतासगढ़ और चुनार की तस्वीरें ज्यादा थीं और तरह-तरह नक्शे भी जगह-जगह लटक रहे थे, जिन्हें बड़े गौर से दोनों कुमार देर तक देखते रहे।

इस कमरे की कैफियत को देखकर इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, "मालूम होता है, 'ब्रह्म-मण्डल' यही है, इसी जगह हम लोगों को बराबर आना पड़ेगा तथा चुनारगढ़ के तिलिस्म की चाबी भी इसी जगह से हमें मिलेगी।"