चम्पा––कौन नकाबपोश? वे ही जो दरबार में आया करते हैं?
देवीसिंह––हाँ वे ही, और उन्हीं के यहाँ मैंने तुमको देखा था।
चम्पा––(ताज्जुब के साथ) यों मैं कुछ भी नहीं समझ सकती, पहले आप अपने सफर का हाल सुनावें और यह बतावें कि आप कहाँ गये थे और क्या-क्या देखा?
इसके जवाब में देवीसिंह ने अपने और भूतनाथ के सफर का हाल बयान किया और इसके बाद उस कपड़े वाले नक्शे की तरफ बता के कहा, "यह उसी स्थान का नक्शा है। उस बँगले के अन्दर दीवारों पर तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई हैं, जिन्हें कारीगर दिखा नहीं सकता, इसलिए नमूने के तौर पर बाहर की तरफ यही रोहतासगढ़ की एक तस्वीर बनाकर उसने नीचे लिख दिया है कि इस बंगले में इसी तरह की बहुत सी तस्वीरें बनी हुई हैं। वास्तव में यह नक्शा बहुत ही अच्छा, साफ और बेशकीमत बना हुआ है।"
चम्पा––अब मैं समझी कि असल मामला क्या है, मैं उस मकान में नहीं गई थी।
देवीसिंह––तब यह तस्वीर तुमने कहाँ से पाई?
चम्पा––यह तस्वीर मुझे लड़के (तारासिंह) ने दी थी।
देवीसिंह––तुमने पूछा तो होगा कि यह तस्वीर उसे कहाँ से मिला?
चम्पा––नहीं, उसने बहुत तारीफ करके यह तस्वीर मुझे दी और मैंने ले ली।
देवीसिंह––कितने दिन?
चम्पा––आज पाँच-छ: दिन हुए होंगे।
इसके बाद देवीसिंह बहुत देर तक चम्पा के पास बैठे रहे और वहाँ से जाने लगे तब वह कपड़े वाली तस्वीर अपने साथ बाहर लेते गये।
8
महल के बाहर आने पर भी देवीसिंह के दिल को किसी तरह चैन न पड़ा। यद्यपि रात बहुत बीत चुकी थी तथापि राजा वीरेन्द्रसिंह से मिल कर उस तस्वीर के विषय में बातचीत करने की नीयत से वह राजा साहब के कमरे में चले गए, मगर वहाँ जाने पर मालूम हुआ कि वीरेन्द्रसिंह महल में गए हैं, लाचार होकर वे लौटना ही चाहते थे कि राजा वीरेन्द्रसिंह भी आ पहुँचे और अपने पलंग के पास देवीसिंह को देखकर बोले, "रात को भी तुम्हें चैन नहीं पड़ती! (मुस्कुरा कर) मगर ताज्जुब यह है कि चम्पा ने तुम्हें इतने जल्दी बाहर आने की छुट्टी क्यों दे दी!"
देवीसिंह––इस हिसाब से तो मुझे भी आप पर ताज्जुब करना चाहिए मगर नहीं, असल तो यह है कि मैं एक ताज्जुब की बात आपको सुनाने के लिए यहाँ चला आया हूँ।
वीरेन्द्रसिंह––वह कौन-सी बात है, और तुम्हारे हाथ में यह कपड़े का पुलिन्दा कैसा है?