सुरेन्द्रसिंह––(इशारे से जाने की आज्ञा देकर) तुम दोनों ने इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल सुनाकर अपने विषय में हम लोगों आश्चर्य को और भी बढ़ा दिया।
दोनों नकाबपोश उठ खड़े हुए और अदब के साथ सलाम करके वहाँ से रवाना हुए।
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देवीसिंह और भूतनाथ की यह इच्छा न थी कि आज सवेरा होते ही हम लोग यहाँ से चले जायें और अपनी स्त्रियों के किसी तरह की जाँच न करें, मगर लाचारी थी, क्योंकि नकाबपोशों की इच्छा के विरुद्ध वे यहाँ नहीं रह सकते थे, साथ ही इसके मकान-मालिक की मेहरबानी और मीठे बर्ताव का भी उन्हें वैसा ही खयाल था, जैसाकि इस मजबूरी की अवस्था में होना चाहिए। सवेरा होने पर जब कई नकाबपोश उनके सामने आये और उन्हें बाहर निकलने के लिए कहा तो देवीसिंह और भूतनाथ उठ खड़े हुए और कमरे के बाहर निकल उनके पीछे-पीछे रवाना हुए। जब मकान के नीचे उतरकर मैदान में पहुँचे तो देवीसिंह का इशारा पाकर भूतनाथ ने नकाबपोश से कहा, "हम तुम्हारे मकान-मालिक से एक दफे और मिलना चाहते हैं।
नकाबपोश––इस समय उनसे मुलाकात नहीं हो सकती।
भूतनाथ––अगर घण्टे या दो घण्टे में मुलाकात हो सके तो हम लोग ठहर जायें।
नकाबपोश––नहीं, अब मुलाकात हो ही नहीं सकती। उन्होंने रात ही को जो हुक्म दे रखा था. हम लोग उसको पूरा कर रहे हैं।
भूतनाथ––हम लोगों को कोई जरूरी बात पूछनी हो तो?
नकाबपोश––एक चिट्ठी लिखकर रख जाओ, उसका जवाब तुम्हारे पास पहुँच जायेगा।
भूतनाथ––अच्छा, यह बताओ कि यहाँ हम लोगों ने गिरफ्तार होने के पहले जिन दो औरतों को देखा था, उनसे भी मुलाकात हो सकती है या नहीं?
नकाबपोश––नहीं, क्या उन लोगों को आपने खानदानी समझ रखा है?
दूसरा नकाबपोश––इन सब फिजूल बातों से कोई मतलब नहीं और न हम लोगों को इतनी फुरसत ही है। आप लोग नाहक हम लोगों को रंज करते हैं और हमारे मालिक की उस मेहरबानी को एकदम भूल जाते हैं जिसकी बदौलत आप लोग कैदखाने की हवा खाने से बच गये।
भूतनाथ––(कुछ क्रोध-भरी आवाज में) अगर हम लोग यहाँ से न जायें तो तुम क्या करोगे?