नकाबपोश––जो आज्ञा, मैं सुनाने के लिए तैयार हूँ।
वीरेन्द्रसिंह––मगर वह सब हाल आप लोगों को कैसे मालूम हुआ होता है, और होगा?
नकाबपोश––(हाथ जोड़कर) इसका जवाब देने के लिए मैं अभी तैयार नहीं हूँ, लेकिन यदि महाराज मजबूर करेंगे तो लाचारी है, क्योंकि हम लोग महाराज को अप्रसन्न भी नहीं किया चाहते हैं।
वीरेन्द्रसिंह––(मुस्कराकर) हम तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम करना भी नहीं चाहते।
इतना कहकर वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखा। तेजसिंह स्वयं उठकर महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गये और थोड़ी ही देर में लौटकर बोले, "चलिए, महाराज बैठे हैं और आप लोगों का इन्तजार कर रहे हैं।" सुनते ही सब लोग उठ खड़े हुए और राजा सुरेन्द्रसिंह की तरफ चले। उसी समय तेजसिंह ने एक ऐयार राजा गोपालसिंह के पास भेज दिया।
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महाराजा सुरेन्द्रसिंह का दरबारे-खास लगा हुआ है। जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, गोपालसिंह और भैरोंसिंह वगैरह अपने खास ऐयारों के अतिरिक्त कोई गैर आदमी यहाँ दिखाई नहीं देता। महाराज की आज्ञानुसार एक नकाबपोश ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का हाल इस तरह कहना शुरू किया––
नकाबपोश––जब तक राजा गोपालसिंह वहाँ रहे तब तक का हाल तो इन्होंने आपसे कहा ही होगा, अब मैं उसके बाद का हाल बयान करूँगा।
राजा गोपालसिंह से बिदा हो दोनों कुमार उसी बावली पर पहुँचे। जब राजा गोपालसिंह सबको लिए हुए वहाँ से चले गये उस समय सवेरा हो चुका था, अतएव दोनों भाई जरूरी काम और प्रातःकृत्य से छुट्टी पाकर बावली के अन्दर उतरे। निचली सीढ़ी पर पहुँचकर आनन्दसिंह ने अपने कुल कपड़े उतार दिए और केवल लंगोट पहने हुए जल के अन्दर बीचोंबीच में जा गोता लगाया। वहाँ जल के अन्दर एक छोटा-सा चबूतरा था और उस चबूतरे के बीचोंबीच में लोहे की मोटी कड़ी लगी हुई थी। जल में जाकर उसी को आनन्दसिंह ने उखाड़ लिया और इसके बाद जल के बाहर चले आए। बदन पोंछकर कपड़े पहन लिए, लंगोट सूखने के लिए फैला दिया और दोनों भाई सीढ़ी पर बैठकर जल के सूखने का इन्तजार करने लगे।
जिस समय आनन्दसिंह ने जल में जाकर वह लोहे की कड़ी निकाल ली, उसी समय से बावली का जल तेजी के साथ घटने लगा, यहाँ तक कि दो घण्टे के अन्दर ही बावली खाली हो गई और सिवा कीचड़ के उसमें कुछ न रहा, और वह कीचड़ भी मालूम होत!