पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/१९४

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इतना समझ रखिये कि उस भेद को सुनकर आप अपने ऊपर एक तरद्दुद का बोझा डाल लेंगे।

देवीसिंह––खैर जो कुछ होगा सहना ही पड़ेगा और तुम्हारी मदद भी करनी ही पड़ेगी, मगर सबके पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि उस भेद से हमारे महाराज का भी कुछ सम्बन्ध है या नहीं?

भूतसिंह––अगर कुछ सम्बन्ध है भी तो केवल इतना ही कि उस भेद को सुनकर वे मुझ पर घृणा करेंगे, नहीं तो महाराज से और उस भेद से कुछ सम्बन्ध नहीं। मैंने महाराज के विपक्ष में कोई बुरा काम नहीं किया, जो कुछ बुरा किया है वह सिर्फ अपने और अपने दुश्मनों के साथ।

देवीसिंह––जब महाराज से उस भेद का कोई सम्बन्ध ही नहीं है तो मैं हर तरह पर तुम्हारी मदद कर सकता हूँ, अच्छा तो अब बताओ कि वह कौन सा भेद है?

भूतनाथ––इस समय न पूछिये क्योंकि हम लोग विचित्र स्थान में कैद हैं, ताज्जुब नहीं कि हम दोनों की बातें कोई किसी जगह पर छिपकर सुनता हो। हाँ, मैदान में निकल चलने पर जरूर कहूँगा।

देवीसिंह––अच्छा यह तो बताओ कि उस आदमी की सूरत भी तुमने अच्छी तरह देख ली या नहीं, जिसने यह तस्वीर नकाबपोश के आगे पेश की थी?

भूतनाथ––हाँ, उसकी सूरत मैंने बखूबी देखी थी। मैं खूब पहचानता हूँ, क्यों कि दुनिया में मेरा सबसे बड़ा दुश्मन वही है और उसे अपनी ऐयारी का भी घमंड है।

देवीसिंह––अगर वह तुम्हारे कब्जे में आ जाये तो?

भूतनाथ––जरूर उसे फँसाने बल्कि मार डालने की फिक्र करूँगा! मैं तो उसकी तरफ से बिल्कुल बेफिक्र हो गया था, मुझे इस बात की रत्ती भर उम्मीद न थी कि वह जीता है।

देवीसिंह––खैर कोई चिन्ता नहीं, जैसा होगा देखा जायगा, तुम अभी से हताश क्यों हो रहे हो!

भूतनाथ––अगर वह सन्दूकड़ी मुझे मिल जाती और उसके खुलने की नौबत न आती तो...

देवीसिंह––वह सन्दूकड़ी मैं तुम्हें दिला दूँगा और उसे किसी के सामने खुलने भी न दूँगा, उसकी तरफ से तुम बेफिक्र रहो।

भूतनाथ––(मुहब्बत से देवीसिंह का हाथ पकड़ के) अगर ऐसा करो तो क्या बात है!

देवीसिंह––ऐसा ही होगा। खैर, अब यह सोचना चाहिए कि इस समय हम लोगों को क्या करना उचित है। मैं समझता हूँ कि सुबह होने के साथ ही हम लोग इस हद के बाहर पहुँचा दिये जायेंगे।

भूतनाथ––मेरा खयाल भी यही है। लेकिन अगर ऐसा हुआ तो आपकी और मेरी स्त्री के बारे में किसी बात का पता न लगेगा।

देवीसिंह और भूतनाथ इस विषय पर बहुत देर तक बातचीत और राय पक्की