इन्दिरा––मैं इस तिलिस्म के अन्दर आ पहुँची और घूमती-फिरती उसी कमरे में पहुँच गई जिसमें आपने उस दिन मुझे मेरे पिता और और राजा गोपालसिंह को देखा था, जिस दिन आप उस बाग में पहुँचे थे जिसमें मेरी माँ कैद थी।
इन्द्रजीतसिंह––अच्छा ठीक है, तो उसी खिड़की में से तूने भी अपनी माँ को देखा होगा?
इन्दिरा––जी हाँ, दूर ही से उसने मुझे देखा और मैंने उसे देखा, मगर उसके पास न पहुँच सकी। उस समय हम दोनों की क्या अवस्था हुई होगी, इसे आप स्वयं समझ सकते हैं, मुझमें कहने की सामर्थ्य नहीं है। (एक लम्बी साँस लेकर) कई दिनों तक व्यर्थ उद्योग करने पर जब मुझे यह निश्चय हो गया कि मैं किसी तरह उसके पास नहीं पहुँच सकती और न उसके छुड़ाने का कुछ बन्दोबस्त ही कर सकती हूँ तब मैंने चाहा कि अपने पिता को इन सब बातों की इत्तिला दूँ। मगर अफसोस, कि यह काम भी मेरे किए न हो सका। मैं किसी तरह इस तिलिस्म के बाहर न जा सकी और मुद्दत तक यहाँ रह कर ग्रहदशा के दिन काटती रही।
इन्द्रजीतसिंह––अच्छा, यह बता कि राजा गोपालसिंह वाली तिलिस्मी किताब तुझे क्योंकर मिली?
इन्दिर––यह हाल भी आपसे कहती हूँ।
इतना कहकर इन्दिरा थोड़ी देर के लिए चुप हो गयी और उसके बाद फिर अपना किस्सा शुरू करना ही चाहती थी कि कमरे का दरवाजा, जो कुछ घूमा हुआ था, यकायक जोर से खुला और राजा गोपालसिंह आते हुए दिखाई पड़े।
7
राजा गोपालसिंह को देखते ही सब कोई उठ खड़े हुए और बारी-बारी से सलाम की रस्म अदा की। इस समय भैरोंसिंह ने लक्ष्मीदेवी की आँखों से मिलती हुई राजा गोपालसिंह की उस मुहब्बत, मेहरबानी और हमदर्दी की निगाह पर गौर किया जिसे आज के थोड़े दिन पहले लक्ष्मीदेवी बेताबी के साथ ढूँढ़ती थी या जिसके न पाने से वह तथा उसकी बहिनें तरह-तरह का इलजाम गोपालसिंह पर लगाने का खयाल कर रही थीं।
सभी की इच्छानुसार राजा गोपालसिंह भी दोनों कुमारों के पास ही बैठ गए और सभी की कुशल-मंगल पूछने के बाद कुमार से बोले, "क्या आपको उस बड़े इजलास की फिक्र नहीं है जो चुनार में होने वाला है, और जिसमें भूतनाथ के दिलचस्प मुकदमे का फैसला किया आयेगा जिसमें उसका तथा और भी कई कैदियों के सम्बन्ध में एक से एक बढ़कर अनूठा हाल खुलेगा? साथ ही इसके मुझे यह भी सन्देह होता है कि आप उनकी तरफ से भी कुछ बेफिक्र हो रहे हैं जिनके लिए···
इन्द्रजीतसिंह––नहीं-नहीं, मैं न तो बेफिक्र हूँ, और न अपने काम में सुस्ती ही