पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/१४७

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नानू––ठीक है, मगर तुम्हें मुझसे ज्यादा बातचीत न करनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि लोगों को मुझ पर शक हो जाय।

मैं––इस समय यहाँ कोई भी नहीं है इसलिए मैं यह प्रार्थना करने आई हूँ कि जिस तरह आपने मुझ पर इतनी कृपा की है, उसी तरह मेरे निकल भागने में भी मदद देकर अनन्त पुण्य के भागी हों।

नानू––अच्छा, मैं इस काम में भी तुम्हारी मदद करूँगा, मगर तुम भागने में जल्दी न करना, नहीं तो सब काम चौपट हो जाएगा, क्योंकि यहाँ के सभी आदमी तुम पर गहरी हिफाजत की निगाह रखते हैं और 'बरदेबू' तो तुम्हारा पूरा दुश्मन है, उससे कभी बातचीत न करना, वह बड़ा ही धोखेबाज ऐयार है। बरदेबू को जानती हो न?

मैं––हाँ, मैं बरदेबू को जानती हूँ।

नानू––बस, तो तुम यहाँ से जल्दी चली जाओ, मैं फिर किसी समय किसी बहाने से तुम्हारे पास आऊँगा तब बातें करूँगा।

मैं खुशी-खुशी वहाँ से हटी और बाग के दूसरे हिस्से में जाकर टहलने लगी जहाँ से पहरे वाले बखूबी देख सकते थे।

जैसे-जैसे अंधकार बढ़ता जाता था, मुझ पर हिफाजत की निगाह भी बढ़ती जाती थी, यहाँ तक कि आधी घड़ी रात जाने पर लौंडियों और खिदमतगारों ने मुझे मकान के अन्दर जाने पर मजबूर किया और मैं भी लाचार होकर अपने कमरे में आ बिस्तर पर लेट गई। सभी ने खाने-पीने के लिए कहा, मगर इस समय मुझे खाना-पीना कहाँ सूझता, सो बहाना करके टाल दिया और लेटे-लेटे सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए!

मैं समझे हुए थी कि नानू मेरे पास आकर मुझे यहाँ से निकल जाने के विषय में राय देगा जैसा कि वह वादा कर चुका था, मगर मेरा खयाल गलत था, आधी रात तक इन्तजार करने पर भी वह मेरे पास न आया। इसके अतिरिक्त रोज मेरी हिफाजत के लिए रात को दो लौंडियाँ मेरे कमरे में रहती थीं। मगर आज चार लौंडियों को रोज से ज्यादा मुस्तैदी के साथ पहरा देते देखा। उस समय मुझे खुटका हुआ, मैं सोचने लगी कि निःसदेह इन लोगों को मेरे बारे कुछ सन्देह हो गया है। मैं नींद न पड़ने और सिर में दर्द होने से बेचैनी दिखाकर उठी और कमरे में टहलने लगी, यहाँ तक कि दरवाजे के बाहर निकलकर सहन में पहुँची तब देखा कि आज तो बाहर भी पहरे का इन्तजाम बहुत सख्त हो रहा है। मैंने प्रकट में किसी तरह का आश्चर्य नहीं किया और पुनः अपने बिस्तरे पर आकर लेट रही और तरह-तरह की बातें सोचने लगी। उसी समय मुझे निश्चय हो गया कि उस पुर्जे को फेंकने वाला नानू नहीं कोई दूसरा है, अगर नानू होता तो इस बात की खबर फैल न जाती, क्योंकि उन टुकड़ों को तो नानू ने मेरे सामने ही बटोर लिया था। अफसोस, मैंने बहुत बुरा किया, अगर वे थोड़े से शब्द, मैं न कहती तो नानू सहज में ही उन टुकड़ों से कोई मतलब नहीं निकाल सकता था, मगर अब तो असल भेद खुल गया और मेरे पैरों में दोहरी जंजीर पड़ गई, अतः अब क्या करना चाहिए!

रात भर मुझे नींद न आई और सुबह को जैसे ही मैं बिछावन पर से उठी तो