पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/१४६

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करते समय मैं कई दफे उसका नाम 'नानू' सुन चुकी थी।

इन्दिरा अपना किस्सा यहाँ तक बयान कर चुकी थी कि कमलिनी ने चौंककर इन्दिरा से पूछा, "क्या नाम लिया, नानू?"

इन्दिरा––हाँ, उसका नाम नानू था।"

कमलिनी––वह तो इस लायक नहीं था कि तेरे साथ ऐसी नेकी करता और तुझे आने वाली आफत से होशियार कर देता। वह बड़ा ही शैतान और पाजी आदमी था। ताज्जुब नहीं कि किसी दूसरे ने तेरे पास वह पुर्जा फेंका और नानू ने देख लिया हो और उसके साथ दुश्मनी की नीयत से उन टुकड़ों को बटोरा हो।

इन्दिरा––(बात काटकर) बेशक ऐसा ही था इस बारे में भी मुझे धोखा हुआ जिसके सबब से मेरी तकलीफ बढ़ गई, जैसा कि मैं आगे चलकर बयान करूँगी।

कमलिनी––ठीक है, मैं उस कम्बख्त नानू को खूब जानती हूँ। जब मैं मायारानी यहाँ रहती थी, तब वह मायारानी और मनोरमा की नाक का बाल हो रहा था और उनकी खैरखाही के पीछे प्राण दिए देता था, मगर अन्त में न मालूम क्या सबब हुआ कि मनोरमा या नागर ही ने उसे फाँसी देकर मार डाला। इसका सबब मुझे आज तक मालूम न हुआ और न मालूम होने की आशा ही है, क्योंकि उन लोगों में से इसका सबब कोई भी न बतावेगा। मैं भी उसके हाथ से बहुत तकलीक उठा चुकी हूँ जिसका बदला तो मैं ले न सकी, मगर उसकी लाश पर थूकने का मौका मुझे जरूर मिल गया। (लक्ष्मीदेवी की तरफ देख के) जब मैंने भूतनाथ के कागजात लेने के लिए मनोरमा के मकान पर जाकर नागर को धोखा दिया, तब मैंने अपनी कोठरी केबगल में इसीकी लटकती हुई लाश पर थूका था।[] उसी कोठरी में मैंने अफसोस के साथ 'बरदेबू' को भी मुर्दा पाया था, उसके मरने का सबब भी मुझे न मालूम हुआ और न होगा। वास्तव में 'बरदेबू' बड़ा ही नेक आदमी था और उसने मेरे साथ बड़ी नेकियाँ की थीं। मुझे यह खबर उसी ने दी थी कि 'अब मायारानी तुम्हें मार डालने का बन्दोबस्त कर रही है।' वह उन दिनों खास बाग के मालियों का दारोगा था।

इन्दिरा––बेशक, बरदेबू बड़ा नेक आदमी था, असल में वह पुर्जा उसी ने मेरी तरफ फेंका था और कम्बख्त नानू ने देख लिया था, मगर मैं धोखा खा गई, मेरी समझ में आया कि वह पुर्जा नानू का फेंका हुआ है और उन टुकड़ों को इस खयाल से उसने चन लिया है कि कोई देखने न पावे या किसी दुश्मन के हाथ में पड़कर मेरा···

कमलिनी––अच्छा फिर आगे क्या हुआ, सो कहो।

इन्दिरा––जब मैंने यह समझ लिया कि यह नेकी नानू ने ही मेरे साथ की है और वह टहलता हुआ मकान के पास आ गया, तो मैं छत पर से उतरकर पुनः बाग में आई और टहलती हुई उसके पास पहुँची।

मैं––(नानू से) आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है जो मुझे आने वाली आफत से होशियार कर दिया। मैं अभी तक मनोरमा को अपनी माँ ही समझ रही थी।


  1. देखिए चन्द्रकान्ता संतति, सातवाँ भाग सातवाँ बयान।