पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/१४४

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मुख्तसिर यह कि हम लोग रात के समय काशीजी पहुँचे। मल्लाहों द्वारा मकान का बन्दोबस्त हो गया और हम लोगों ने उसमें जाकर डेरा भी डाल दिया। एक दिन उसमें रहने के बाद मनोरमा ने कहा कि "बेटी, तू इस मकान के अन्दर दरवाजा बन्द करके बैठ तो मैं जाकर मनोरमा का हाल दरियाफ्त कर आऊँ। अगर मौका मिला तो मैं उसे जान से मार डालूँगी और तब स्वयं मनोरमा बनकर उसके मकान, असबाब और नौकरों पर कब्जा करके तुझे लेने के लिए यहाँ आऊँगी, उस समय तू मुझे मनोरमा की सूरत-शक्ल में देखकर ताज्जुब न करना, जब मैं तेरे सामने आकर 'चापगेच' शब्द कहूँ, तब समझ जाना कि यह वास्तव में मेरी माँ है, मनोरमा नहीं। क्योंकि उस समय सब सिपाही-नौकर मुझे मालिक समझकर आज्ञानुसार मेरे साथ होंगे। तेरे बारे में मैं उन लोगों में यही मशहूर करूँगी कि यह मेरी रिश्तेदार है, इसे मैंने गोद लिया है और अपनी लड़की बनाया है। तेरी जरूरत की सब चीजें यहाँ मौजूद हैं, तुझे किसी तरह की तकलीफ न होगी।"

इत्यादि बहुत-सी बातें समझा-बुझाकर मनोरमा मकान के बाहर हो गई और मैंने भीतर से दरवाजा बन्द कर दिया, मगर जहाँ तक मेरा खयाल है, वह मुझे अकेला छोड़कर न गई होगी बल्कि दो-चार आदमी उस मकान के दरवाजे पर या इधर-उधर हिफाजत के लिए जरूर लगा गई होगी।

ओफ ओह, उसने अपनी बातों और तरकीबों का ऐसा मजबूत जाल बिछाया कि मैं कुछ कह नहीं सकती। मुझे उस पर रत्ती-भर भी किसी तरह का शक न हुआ और मैं पूरा धोखा खा गई। इसके दूसरे ही दिन तक वह मनोरमा बनी हुई कई नौकरों को साथ लिए मेरे पास पहुँची और 'चापगेज' शब्द कहकर मुझे अपना परिचय दिया। मैं यह समझकर बहुत प्रसन्न हुई कि माँ ने मनोरमा को मार लिया, अब मेरे पिता भी कैद से छूट जायेंगे। अब जिस रथ पर सवार होकर मुझे लेने के लिए आई थी, उसी पर मुझे अपने साथ बैठाकर वह अपने घर ले गई और उस समय मैं हर तरह से उसके कब्जे में पड़ गई।

मनोरमा के घर पहुँचकर मैं उस सच्ची मुहब्बत को खोजने लगी जो एक माँ को अपने बच्चे के साथ होती है, मगर मनोरमा में वह बात कहाँ से आती? फिर भी मुझे इस बात का गुमान न हुआ कि यहाँ धोखे का जाल बिछा हुआ है जिसमें मैं फँस गई हूँ, बल्कि मैंने यह समझा कि वह मेरे पिता को छुड़ाने की फिक्र में लगी हुई है और इसी से मेरी तरफ ध्यान नहीं देती, और वह मुझसे घड़ी-घड़ी यही बात कहा भी करती कि 'बेटी, मैं तेरे बाप को छुड़ाने की फिक्र में पागल हो रही हूँ।'

जब तक मैं उसके घर में बेटी कला कर रही, तब तक न तो उसने कभी स्नान किया और न अपना शरीर ही देखने का कोई ऐसा मौका मुझे दिया जिसमें मुझको शक होता कि यह मेरी माँ नहीं, बल्कि दूसरी औरत है। और हाँ मुझे भी वह असली सूरत में रहने नहीं देती थी, चेहरे में कुछ फर्क डालने के लिए उसने एक तेल बनाकर मुझे दे दिया था जिसे दिन में एक या दो दफे मैं नित्य लगा लिया करती थी। इससे केवल मेरे रंग में फर्क पड़ गया था और कुछ नहीं।