इन्द्रजीतसिंह––आज वह तमाशा मैं नहीं दिखा सकता, हाँ, भाई साहब (गोपालसिंह) अगर चाहें तो दिखा सकते हैं, मगर इसके लिए जल्दी ही क्या है?
लक्ष्मीदेवी––खैर, जाने दीजिये, आखिर एक-न-एक दिन मालूम हो ही जायेगा। अच्छा यह बताइये कि आप जब इस तिलिस्म में या इसके बगल वाले बाग में आये थे तो उस बुड्ढे तिलिस्मी दारोगा से मुलाकात हुई थी या नहीं?
इन्द्रजीतसिंह––हाँ, हुई थी, बड़ा शैतान है, क्या तुम लोगों से वह नहीं मिला?
लक्ष्मीदेवी––भला वह कभी बिना मिले रह सकता है? उसने तो हम लोगों को भी धोखे में डालना चाहा था, मगर तुम्हारे भाई साहब ने पहले ही उसकी शैतानी से हम लोगों होशियार कर दिया था, इसलिए हम लोगों का वह कुछ बिगाड़ न सका।
कमलिनी––मगर आपने उसकी बात मान ली और इसलिए उसने भी आपसे खुश होकर आपकी शादी करा दी। आपको तो उसका अहसान मानना चाहिए...
लक्ष्मीदेवी––(कमलिनी को झिड़ककर) फिर तुम उसी रास्ते पर चलीं! खामखाह एक आदमी को...
इन्द्रजीतसिंह––अबकी अगर वह मुझे मिले तो उसे बिना मारे कभी न छोड़ चाहे जो हो।
इन्द्रजीतसिंह की इस बात पर सब हँस पड़े और इसके बाद लक्ष्मीदेवी ने कुमार से कहा, "अच्छा, अब यह बताइये कि मेरे चले जाने के बाद आपने तिलिस्म में क्या किया और क्या देखा?"
इसी समय सरयू भी वहाँ आ पहुँची और बोली, "चलिये पहले खा-पी लीजिए तब बातें कीजिये।"
लक्ष्मीदेवी के जिद करने से दोनों कुमारों को उठना पड़ा और भोजन इत्यादि से छुट्टी पाने के बाद फिर उसी ठिकाने बैठकर गप्पें उड़ने लगीं। कुमार ने अपना कुल हाल बयान किया और वे सब आश्चर्य से यह सब कथा सुनती रहीं। इसके बाद कुमार ने इन्दिरा से उसका बाकी किस्सा पूछा।
5
दूसरे दिन तेजसिंह को उसी तिलिस्मी इमारत में छोड़कर और इन्द्रजीतसिंह को साथ लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह अपने पिता से मिलने के लिए चुनार गए। मुलाकात होने पर वीरेन्द्रसिंह ने पिता के पैरों पर सिर रखा और उन्होंने आशीर्वाद देने के बाद बड़े प्यार से उठाकर छाती से लगाया और सफर का हाल पूछने लगे। राजा साहब की इच्छानुसार एकान्त हो जाने पर वीरेन्द्रसिंह ने सब हाल अपने पिता से बयान किया जिसे वे बड़ी दिलचस्पी के साथ सुनते रहे। इसके बाद पिता के साथ-